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* ४८ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ ®
की अदालत को जिसे जो सजा नहीं देनी होती, उस जीव को दुनियाँ का कोई भी समर्थ से समर्थ व्यक्ति या चेम्पियन कहलाने वाला हेवीवेट बॉक्सर भी अथवा देवी-देव या चक्रवर्ती नरेन्द्र भी सजा नहीं दे सकता। कर्मसत्ता में ही दण्ड या पुरस्कार देने की सम्पूर्ण क्षमता निहित है। कर्मसत्ता के इशारे से ही कोई प्राणी किसी को दुःखी-सुखी करने में निमित्त बनता है। इतना ही नहीं, कर्मसत्ता ने जिसको जो सजा दे दी, उसे अन्यथा करने की शक्ति किसी में नहीं है। वह कर्मापराधी जीव भागने की लाख कोशिश करे, कर्मों के दुष्परिणाम से बचने का जी-तोड़ परिश्रम करे, सब व्यर्थ होगा, सफलता हाथ नहीं लगेगी। .. अनिकाचित कर्मों को उदय में आने से पहले बदला जा सकता है
किन्तु यदि ऐसे कर्मापराधी के वे कर्म निकाचित रूप से नहीं बँधे हों, तो उन कर्मों के उदय में आने से पहले ही वह बाह्य-आभ्यन्तर तप, संयम, त्याग, प्रत्याख्यान, व्रत, नियम, स्वाध्याय, ध्यान, प्रायश्चित्त आदि के द्वारा उस कर्म की स्थिति और अनुभाग (रस) में परिवर्तन करके उस सजा (कर्मफल) को न्यून या नाबूद भी कर सकता है, उदीरणा द्वारा उस कर्मफल को उदय में आने से पहले भोगकर कर्मक्षय भी कर सकता है। परन्तु यह सब होगा स्वयं के. पुरुषार्थ से ही; क्योंकि कर्मों का निरोध या क्षय अथवा बद्ध कर्मों की स्थिति और अनुभाग को न्यून करना या पूर्णतया समाप्त करना जीव के अपने ही पुरुषार्थ पर निर्भर है। निकाचित कर्मों को सम्यग्दृष्टि और समभावी बनकर भोगो । परन्तु यदि कोई कर्म निकाचित रूप से बँधा हुआ हो अथवा पूर्वबद्ध कर्म अबाधाकाल की अवधि पूरी होने पर उदय में आ गया हो तो उसे भोगे बिना छुटकारा नहीं है। किन्तु उस स्व-कृत कर्म का फल भोगते समय सम्यग्दृष्टि, समभाव की वृत्ति, शान्ति एवं धैर्य रखना अनिवार्य है, तभी निर्जरा की साधना हो सकती है। हत्या करने का किसी का षड्यंत्र कर्मसत्ता विफल बना देती है
यह भी सत्य है कि किसी राजा को यह मालूम हो जाए कि अमुक लड़का मेरी हत्या करने वाला है या मेरे बाद वह मेरी राजगद्दी पर बैठेगा; इस कटु सत्य को जानते हुए भी वह राजा उस बालक की हत्या कराने के कई दाँवपेच खेलता है। मगर वह बालक बिलकुल आबाद और सुरक्षित बच जाता है। और तो और जिस व्यक्ति ने १00-२00 क्रूर हत्याएँ कर डाली हों, मनुष्य का मार डालना जिसके
१. जो अप्पणादु मण्णदि, दुक्खिद-सुहिदे करेमि सत्तेति।
सो मूढो अण्णाणी, णाणी एत्तोदु विवरीदो॥
-समयसार, गा. २५३