________________
® संवर और निर्जरा : एक विश्लेषण ® ४७ 8
तुम स्वयं को दुःख में डालने वाले असली अपराधी को पकड़ लोगे। “You will catch the real one."१
और इस प्रकार सोचोगे कि इस संसार के खूख्वार प्राणी-चाहे शेर, चीता, सर्प या अजगर हों या सबसे खतरनाक इन्सान भी हो, ये सब कर्मसत्ता का हुक्म बजाने वाले कर्मचारी हैं। कर्मसत्ता के न्यायालय ने मेरे लिये जिस-जिस प्रकार की सजा निश्चित की है, जितनी अवधि से जितनी अवधि तक, उतनी अवधि तक वैसी-वैसी सजा ये कर्मसत्ता के कर्मचारी जीव मुझे भुगवाते हैं। इनका कोई अपराध नहीं, अपराध है मेरी कर्मबद्ध आत्मा का !
___ निमित्त तो कर्मसत्ता के आदेश का पालन करने वाला है किसी को यह कर्मसत्ता ने आदेश किया-इसे बदनाम कर दो या इस पर झूठा दोषारोपण कर दो, इस पर चोरी का इल्जाम लगा दो, तो वह (आदेशपालक) जीव उसे बदनाम करता है, कलंकित करता है, मिथ्या दोषारोपण करता है अथवा चोरी का अपराध लगाता है। उसने किसी से कहा-इस पर लाठी से प्रहार करो, तो वह लाठी से उस पर प्रहार करता है। इसी प्रकार धन की चोरी, काम का बिगड़ना, व्यापार में घाटा लगना, विश्वासघात, ईर्ष्या, वैर-विरोध आदि जो भी परेशानियाँ या विपदाएँ जीवन में आती हैं, वे सब सजाएँ कर्मसत्ता की अदालत की हैं। देने वाला तो सिर्फ माध्यम है। इस नियम को अपने मन-मस्तिष्क में = दिल-दिमाग में अंकित कर लेने वाला व्यक्ति कदापि आसव और बन्ध का स्वागत नहीं करेगा, वह संवर और निर्जरा को ही अपने दैनन्दिन अभ्यास में दोहरायेगा।२ - संवर-निर्जरा-साधक के समक्ष तथ्य : सुख-दुःखकर्ता स्वयं आत्मा ही
ऐसी संवर-निर्जरा की साधना का सम्यग्दृष्टि-सम्पन्न अभ्यासी साधक अपने मन में 'समयसार' की इस गाथा को भी अंकित कर लेगा कि “कोई भी जीव किसी दूसरे जीव को सुखी या दुःखी नहीं कर सकता।'' सुख और दुःख का कर्ता-भोक्ता स्वयं ही पूर्वबद्ध कर्मकर्ता जीव है। अपने सुख-दुःख के लिए वह स्वयं ही उत्तरदायी है।
कर्मसत्ता को चुनौती देने की क्षमता किसी में भी नहीं - इसी तथ्य के सन्दर्भ में एक बात का और ध्यान रखना चाहिए कि कर्मसत्ता
१. 'हंसा ! तू झील मैत्री-सरोवर में' से भावांश ग्रहण, पृ. ९७-९९ २. वही, पृ. १००