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ॐ ४६ * कर्मविज्ञान : भाग ६ *
कितना बड़ा अन्तर है-निमित्तों को न कोसकर समभावपूर्वक शान्ति और धैर्य के साथ अत्यन्त कष्टकर कर्मफल को भोगने में तथा निमित्तों के प्रति रोष-द्वेष करके मन को संक्लिष्ट और दुर्भावपूर्ण बनाकर नये आते हुए कर्मों (आम्रवों) का स्वागत करने और पूर्वबद्ध कर्मों को बेमन से रोते-रोते भोगने में? दुःखों को हाय-हाय करते हुए भोगने (वेदन करने) से असातावेदनीय कर्म का बन्ध भी पड़ने की पूरी संभावना है इस प्रकार की श्वानवृत्ति में। कैदी की मनोवृत्ति निमित्तों को दोष देने की नहीं होती
जैसे अपराध करने वाले व्यक्ति को कोर्ट में न्यायाधीश द्वारा जो भी सजा सुनाई जाती है। जेल के जेलर, सिपाही आदि सब कर्मचारी तो उसे अपना कर्तव्य मानकर दण्ड के उस आदेश का पालन कराते हैं। वे कैदी को कैद करते हैं, जेल में बन्द करते हैं, उसको दिये गए दण्ड के अनुसार सख्त मजदूरी भी करवाते हैं, कभी-कभी कैदी को कोड़े, डंडे आदि से मारते-पीटते भी हैं, यहाँ तक कि फाँसी के तख्ते पर भी चढ़ाते हैं; मौत का परवाना लाने वाले इलेक्ट्रिक चेयर पर भी बिठाते हैं। मगर उस समय कैदी यह नहीं सोचता कि मैंने इस जेलर या सिपाही का क्या बिगाड़ा है कि मुझे ये इतना घोर कष्ट दे रहे हैं ? मैं तो इतनी मार नहीं खाऊँगा। यह मुझे मारेगा-पीटेगा तो मैं भी इसे मारूँगा-पीटँगा।" क्योंकि कैदी जानता है कि यह जेलर या सिपाही मेरा शत्रु नहीं है, यह तो कोर्ट का कर्मचारी है। सरकार का एक नौकर है। सरकारी न्यायालय के आदेश के अनुसार अपना कर्तव्य अदा करता है। कोर्ट ने उसे आदेश दिया है कि इस कैदी से सख्त काम करवाओ, इस कैदी के ५0 कोड़े लगाओ। तभी वह इस प्रकार का सख्त परिश्रम करवाता है या कोड़े मारता है। अतः मैं इसके प्रति रोष, द्वेष या हिंसक प्रतिकार करके क्यों शत्रुता मोल लूँ? प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह अपराधी हो या अपराधी का सहायक, पुलिस को या जेल कर्मचारी को सिर्फ दण्डवाहक मानता है। संवर और निर्जरा की साधना तुम्हारी मुट्ठी में
उसी प्रकार कर्मविज्ञान कहता है कि ओ संवर-निर्जरा के साधक मानव ! तुम्हें कोई व्यक्ति हैरान-परेशान करे, कैसी भी पीड़ा पहुँचाये या तुम्हें कष्ट दे या तुम पर आफत ढहाए, उस समय तुम्हारे मन, वचन और काया की वृत्ति-प्रवृत्ति और अभ्यास इसी साँचे में ढला हुआ हो तो तुम मानसिक क्लेश से, द्वेष से और रोष से तथा नये कर्म को बुलाने एवं बाँधने से बच जाओगे, पुराने बँधे हुए अशुभ कर्मों का फल भी समभाव एवं सम्यग्दृष्टिपूर्वक भोग लेने से उन कर्मों का क्षय भी कर सकोगे। यानी संवर और निर्जरा दोनों तुम्हारी मुट्ठी में हो जायेंगे; बशर्ते कि