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संवर और निर्जरा : एक विश्लेषण ४५
आत्म-हित में बाधा पहुँचेगी या आपकी आत्मोन्नति रुक जायेगी, ऐसा कोई नियम नहीं है। यह तो कर्मों की माया है । परन्तु मेरी आपसे एक विनम्र प्रार्थना है कि कल को लोग जैनधर्म की भी निन्दा करने लगेंगे। अतः जैसे लोगों के कहने से आपने मेरा त्याग किया, वैसे लोगों के कहने से जैनधर्म का त्याग मत कर देना । अन्यथा, ऐसा करने से आपकी महान् हानि होगी, क्योंकि सद्धर्म का त्याग करने से आपका आत्म-हित अवश्य रुक जायेगा। अतः दासी की इतनी विनती पर अवश्य ध्यान देना । १
अगर सीता जी ऐसी सिंहवृत्ति न अपनाकर श्वानवृत्ति अपनातीं कि “यह कैसा न्याय है? आपने सिर्फ एक पक्ष की बात सुनकर सजा सुना दी। मुझे भी पूछते। मेरी भी बात सुन लेते। एक सामान्य मानव भी ऐसी गर्भवती स्त्री को जंगल में अकेली निःसहाय अवस्था में नहीं छोड़ता । छोड़े भी तो उसके पीहर में छोड़ता है; घोर जंगल में नहीं। परन्तु आप तो बड़े राजा रहे न, अतः जो भी मन में आया, तत्काल कर सकते हैं।" ऐसा कोई उपालम्भ या तीखा व्यंग्य उन्होंने नहीं कसा । प्रत्युत पूर्वोक्त शुभ सन्देश ही दिया। इस हद तक का सौजन्य तथा उत्कृष्ट एवं उदार मनोभाव सीता जी किस बलबूते पर दिखा सकीं ? कहना होगा कि अपराध के मूल को देखने वाले, कर्मविज्ञान की भाषा में कहें तो आस्रव (कर्मों के आगमन) के समय संवर (आते हुए कर्म का सहसा निरोध) करने के कौशलकर्त्ता के लिये यह सब कुछ शक्य है। उसकी सिहंवृत्ति के अभ्यास ने उसे झटपट ऐसा सोचने को प्रेरित कर दिया कि "केवल सेनापति और श्री रामचन्द्र जी ही नहीं, ये सारे नगरजन भी मेरे पूर्वकृत कर्मराज के द्वारा दण्ड देने में निमित्त या माध्यम बने हैं। ये तो कर्मसत्ता के न्यायालय के आदेशों का पालन कराने वाले कर्मचारी भी हैं। मूल अपराधी तो मेरे पूर्व कर्म ही हैं या मेरी कर्मबद्ध आत्मा ही है । यही कारण है कि सीता जी अपने पूर्वकृत कर्मों को हँसते-हँसते समभाव से भोगने को तत्पर हो गईं और इसी विचारधारा के बल पर वह निमित्तों के प्रति द्वेष या मानसिक संक्लेश न करके नये अशुभ कर्म बाँधने से बच गईं। अर्थात् आम्रव के बदले सुंदर कर सकीं तथा इन पूर्ववद्ध कर्मों का क्षय करके निर्जरारूप धर्म का भी आचरण कर सकीं। अन्यथा, श्वानवृत्ति वाले तथा अन्यान्य की कल्पना से ही उत्तेजित होकर निमित्तों पर रोप- द्वेषवश बरस पड़ने के अभ्यासी संसारी जीव तो ऐसे विकट अवसर पर नये कर्म बाँध लेते हैं, पुराने कर्मों का भुगतान भी रो-रोकर करते हैं, जिससे अति दुःख और संक्लेश का संवेदन करने पर भी थोड़े-से कर्मों की अकाम निर्जग कर पाते हैं।
9.
'जैन रामायण' से सीता वनवास का प्रसंग