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ॐ ४४ % कर्मविज्ञान : भाग ६ *
मूल तो कर्म (पूर्वबद्ध कर्म) है, मूल उत्पीड़क को न पकड़कर मैं निमित्तों को पकडूंगा, तो यह मेरी भयंकर भूल होगी। कर्मों के संवर और निर्जरा (आंशिक क्षय) के शुभ अवसर को मुझे नहीं चूकना है। महासती सीता का सिंहवृत्तिमूलक चिन्तन ___सम्यग्दृष्टि-सम्पन्न महासती सीता गर्भवती थी, पतिव्रता थी, निर्दोष थी। परन्तु ऐसी स्थिति में रामचन्द्र जी ने कृतान्तवदन नामक सेनापति को आज्ञा दी सीता जी को निर्जन वन में छोड़ आने की। तीर्थयात्रा के बहाने रथ में बिठाकर भीषण जंगल . में सीता जी को अकेली छोड़ आने की आज्ञा थी। सेनापति को अपना कठोर कर्तव्य-पालन करना था। यद्यपि उसका मन नहीं चाहता था, हिंस्र पशुओं से भरे निर्जन वन में सीता जी को छोड़ने का। परन्तु उसके वश की बात नहीं थी स्वामी की आज्ञा को ठुकराने की। जिस समय वह सीता जी को रथ में बिठाकर जंगल में ले जा रहा था तथा जिस समय उन्हें रथ से नीचे उतार रहा था, उस समय उसकी आँखें सावन-भादों बरसा रही थीं। रुदन करते हुए जब उसने सीता जी से सारी बात खोलकर कही तो सीता जी ने सुनकर स्वस्थचित्त से उसे आश्वासन देते हुए कहा-“अरे भाई ! तुम क्यों दुःखी हो रहे हो? तुम थोड़े ही मुझे इस जंगल में छोड़ रहे हो? तुम तो अपने स्वामी की आज्ञा का पालन कर रहे हो ! तुम्हारा इसमें लेशमात्र भी दोष नहीं है और तुम्हारे स्वामी का भी इसमें क्या दोष? मेरे पूर्वकृत कोई कर्म उदय में आए हैं, जिनसे उन्हें कर्म भुगवाने में निमित्त बनना पड़ा है। मूल अपराधी और कोई नहीं, मैं ही हूँ; मेरे ही पूर्वबद्ध कर्म हैं !" मूल अपराधी को पकड़ने की कितनी उत्कृष्ट सिंहवृत्ति है महासती सीता जी की? सीता जी ने संवर-निर्जरा की साधना का अवसर नहीं चूका
जीवन के ऊषाकाल में जो तत्त्वज्ञान सीता जी ने प्राप्त किया था, वही तत्त्वज्ञान इस विपदा को सामने पाकर भी विस्मृत नहीं हुआ। कर्मविज्ञान का वही तत्त्वज्ञान इस समय उनके जीवन में अपनी सोलह कलाओं से खिल उठा। उसी के बलबूते पर सीता जी ने अपनी दृष्टि उसकी तह तक दौड़ाई और मूल बात का पता लगा लिया। घोर विपत्ति के आने पर भी वह न तो स्वयं उद्विग्न हुई और न ही कृतान्तवदन सेनापति पर और न श्री रामचन्द्र जी पर मन में किसी प्रकार का अप्रीति, रोष या द्वेष का भाव आया। यही कारण है कि बिलकुल स्वस्थचित्त से वह सेनापति को भी आश्वासन दे रही थीं और श्री रामचन्द्र जी के प्रति भी कोई रोष-आक्रोशभरा तीखा व्यंग्य वचन न निकालकर शुभ सन्देश. कहलाया"स्वामिन् ! लोगों के कथनोपकथन पर उन्हें सन्तुष्ट करने हेतु भले ही आपने मेरा त्याग किया। इसमें मुझे जरा भी रंज नहीं है। मेरा त्याग करने से आपके