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________________ ॐ संवर और निर्जरा : एक विश्लेषण ॐ ४३ ॐ तात्पर्य यह है कि जो निमित्त पर रोष या द्वेषवश बदला लेने के लिये तत्पर होता है, उसे उस समय सोचना चाहिए कि मैं जिसे मारने-पीटने, सताने आदि के रूप में दण्ड देने के लिए तत्पर हुआ हूँ, वह दूसरा कोई नहीं, मैं ही हूँ, अर्थात् मेरे ही पूर्वकृत अशुभ कर्म हैं, जो उदय में आए हैं। वह व्यक्ति तो कर्मसत्ता का चाकर है, माध्यम है। दण्ड देने वाला तो मूल में कर्म है, जो अपना ही किया हुआ है। अब अगर मैं श्वानवृत्ति धारण करके निमित्तों (जोकि असली अपराधी नहीं हैं) को दण्ड देना चाहता हूँ, उससे तो मेरे पूर्वकृत कर्म कटने के बदले और अधिक बँधगे. उनका फल (दण्ड के रूप में) फिर मुझे भोगना पड़ेगा। श्वानवृत्ति का त्याग करने से संवर और निर्जरा का उपार्जन अतः जैसे को तैसा या उपादान को दण्ड न भुगवाकर निमित्त को दण्डित करने की श्वानवृत्ति का त्याग करना ही कर्मों के आगमन का विरोध करना है, शुभ योग-संवर है, सम्यग्दृष्टिपूर्वक आस्रव-निरोध करना अविरति-संवर है और सम्यग्दर्शनपूर्वक धैर्य और समभाव के साथ कर्मों द्वारा कृत दण्ड को सहन करना-कष्ट सहना-निर्जरा (कर्मक्षय) का कारण है। ऐसे समय में सिहंवृत्ति धारण करने वाला सम्यग्दृष्टियुक्त साधक निमित्त को नहीं कोसता, निमित्त को भला-बुरा नहीं कहता, निमित्त से बदला लेने की वृत्ति नहीं रखता। वह अपने उपादान (अपनी कषायकलुषित, कर्मरज से मलिन आत्मा) को समभाव व प्रशमभाव में स्थिर कर लेता है। पूर्वकृत कर्मों के द्वारा प्रदत्त उस दण्डरूप फल को धैर्य, शान्ति और समभाव के साथ सहन कर लेता है। सिंहवृत्ति वाला साधक दुःख के मूल कारणरूप कर्म को पकड़ता है ऐसा सिंहवृत्ति वाला जीव विचक्षण है, जो अपनी परेशानी हैरानी, कष्ट या विपत्ति के मूल कारणरूप कर्म को खोजता है। वह उस विपत्ति या संकट के मूल कारण को दूर करने का पुरुषार्थ करता है और कष्ट, दुःख या संकट उपस्थित करने वाले व्यक्ति को अपने कर्म काटने में, कर्म भोगने में सहायक मानता है। वह निमित्त को कासकर या उससे बदला लेने का भाव न रखकर संक्लेश, परिताप, मानसिक पीड़ा आदि से सहज में बच जाता है। वह गाली देने वाले, अपमानित करने वाले या त्रास देने वाले को बदले में गाली नहीं देता, अपमान करने वाले या त्रास देने वाले को अपमानित या त्रस्त नहीं करता, बल्कि यह मानता है कि अपमानित या त्रस्त करने वाला यह व्यक्ति नहीं, यह तो माध्यम है कर्मसत्ता का। मूल अपमानकर्ता या त्रासदाता तो मेरे अपने ही कर्म हैं। जैसे-वृक्ष को काटने में मूल तो कुल्हाड़ी की तीखी धार होती है। उससे संलग्न लकड़ी का दण्ड तो सिर्फ हत्था है, पकड़ने के लिए आलम्बन है; वैसे ही जीव को त्रास या पीड़ा देने वाला
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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