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________________ ॐ ४२ % कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ के लिए गये। उस समय राजगृही के नागरिकों में अर्जुन मुनि के प्रति घोर प्रतिक्रिया हुई। किसी ने थप्पण, मुक्के, लाठी, ढेले आदि से उन पर प्रहार किया, किसी ने गाली दी, अपशब्द कहे, किसी ने उन्हें आहार नहीं दिया, किसी ने पानी न दिया। विविध प्रकार.से प्रतिक्रिया होने पर भी क्षमाशील अर्जुन मुनिवर ने मन से, वचन से और काया से जरा भी प्रतिक्रिया नहीं की। अतः भावसंवर उपार्जित किया। उन्होंने सोचा-मैंने इनके सम्बन्धियों को मारा है, उसका बदला ये केवल इतनी-सी प्रतिक्रिया करके करते हैं, मेरा पूर्वबद्ध अशुभ कर्म का कर्ज थोड़े में चूक रहा है। यों संवर किया, उसमें सुदृढ़ रहे। शरीर तो नाशवान है, इस पर मैं . . ममत्ववश होकर इसकी रक्षा के लिए क्यों प्रतिकार करूँ? इस प्रकार समभाव और क्षमाभाव से निष्प्रतिक्रियापूर्वक छह महीने तक उपसर्ग और परीषह सहने से समस्त कर्मों की निर्जरा करके वे सिद्ध-बुद्ध और सर्वकर्ममुक्त हो गए। यह है सिंहवृत्तिपूर्वक अपने कर्मबद्ध उपादान को शुद्ध करने का पुरुषार्थ ! इसके विपरीत श्वानवृत्ति वाला साधक ऐसे उपसर्ग (कष्ट) और परीषह आने पर अपने उपादान (पूर्वबद्ध कर्मोदय के कारण हुई अपनी आत्म-दशा) को नहीं देखता, अपितु निमित्त (उसके प्रति दुर्भाव या दुर्व्यवहार करने वाले) को पकड़ता है, उसे ही दण्ड देने को उतारू हो जाता है अथवा बदला लेने की भावना करता है। वह यह नहीं सोचता कि यह मेरे द्वारा ही स्वयं पूर्वकृत कर्मों का फल है। यह दण्ड मेरे कृतकर्मों का ही है। यह व्यक्ति तो निमित्तमात्र है। मेरे किये हुए कर्मों का फल तो मुझे ही देर-सबेर भोगना पड़ता। इस निमित्त की क्या ताकत है कि यह मुझे दण्ड दे। यह ताकत तो कर्मसत्ता की है और कर्मसत्ता तो अपनी ही अपनाई हुई है। किन्तु श्वानवृत्ति वाले में आवेश के समय यह सूझबूझ नहीं होती। . कष्ट के समय निमित्तों के प्रति प्रतिक्रिया करने वालों को चेतावनी __पूर्वबद्ध कर्म के कारण व्यक्ति पर कष्ट या संकट आ पड़ने पर जो व्यक्ति पूर्वोक्त प्रकार की श्वानवृत्ति अपनाता है और तदनुसार निमित्तों (प्रत्यक्ष दुःख देने वालों) को कोसता है, प्रहार करता है, निन्दा करता है तथा उनके साथ बदला लेने, वैर-विरोध करने या वैसा ही दुर्व्यवहार करने को तत्पर हो जाता है; उसे भगवान महावीर द्वारा दी गई इस चेतावनी पर ध्यान देना चाहिए____ “अरे आत्मन् ! त वही है, जिसे तू मारना चाहता है; तू वही है, जिसे तू जबरन अपने वचनानुसार चलाना चाहता है; तू वही है, जिसे तू गुलाम बनाकर रखना चाहता है; तू वही है, जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू उपद्रवित करना चाहता है।"१ १. तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वं ति मनसि, अज्जावेयव्वं, परितावेयव्वं, परिघेतव्वं, उद्दवेयव्वं ति मनसि। -आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. ५, उ. ५
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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