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• संवर और निर्जरा : एक विश्लेषण ४१
राजा के मन में विचार आया - " यह व्यापारी बड़ा दुष्ट है। इसकी सम्पत्ति जब्त करके इसे देशनिकाला दे देना चाहिए ।" राजदरबार में पहुँचकर राजा ने अपने मन में उठे मनोभाव मंत्री के समक्ष प्रगट किये और पूछा - " मेरे मन में आज ऐसे दुर्भाव क्यों आए ?" चतुर मंत्री ने कहा - "महाराज ! मैं इसका कारण ढूँढ़कर आपको बताऊँगा।” मंत्री वेश बदलकर उस चन्दन- व्यापारी के पास पहुँचा । उससे घनिष्टताभरी बातें कीं । व्यापार की बातों के दौरान मंत्री ने उससे पूछा - " आजकल कामकाज कैसा चल रहा है ?” व्यापारी ने कहा - " भाई ! चन्दन का व्यवसाय बिलकुल मन्दा होने से ठप्प पड़ा है। इसकी बिक्री के दो अवसर आते हैं - (१) या तो किसी राजा-महाराजा या सेठ साहूकार की मृत्यु हो तब उनकी दाहक्रिया में चंदनकाष्ठ की जरूरत पड़ती है । (२) या फिर राजा-महाराजा अथवा कोई श्रेष्ठी अपने भवनों में फर्नीचर आदि के लिए इसे खरीदे।" मंत्री के लिये इतना ही संकेत काफी था । वहाँ से लौटकर उसने राजमहलों में लकड़ी का सामान बनवाने के बहाने उस चंदन - व्यापारी से सारा चन्दन खरीदकर मँगवा लिया। अब वह चंदन-व्यापारी राजा के प्रति शुभ भावों से युक्त एवं सन्तुष्ट था।
कुछ दिनों बाद राजा और मंत्री दोनों उसी प्रकार नगरचर्या करने के लिए निकले, बाजार में अपनी दुकान पर बैठे चन्दन - व्यापारी को देख राजा के मन में आज अच्छी भावनाएँ जागीं। मंत्री से कारण पूछा तो उसने पिछली बात आद्योपान्त बताकर निवेदन किया- "महाराज ! अब यह व्यापारी भी आपके लिए शुभचिन्तन करता है, इसलिए आपके मन में भी शुभ भावनाएँ उद्भूत हुई हैं। यह था - अच्छी-बुरी भावना की सामने वाले व्यक्ति पर होने वाली प्रतिक्रिया का निदर्शन 19
निर्बल व्यक्ति भी निमित्त के प्रति दुष्प्रतिकार या दुर्भावना करता है
कई दफा अशक्त या कमजोर व्यक्ति अपने प्रति दुर्व्यवहार, दुर्भाव या दुर्वचन प्रगट करने वाले के प्रति तत्काल स्वयं दुष्प्रतिकार नहीं कर पाता, परन्तु उसके मन में तो प्रायः उससे बदला लेने की भावना उमड़-घुमड़कर आती रहती है । अन्तकृद्दशासूत्र में राजगृही में अर्जुनमाली के आतंक का आख्यान आता है। जिस समय अर्जुनमाली के यक्षाविष्ट होकर राजगृही नगरी के बाहर पुरजोर में आतंक मचा रहा था। सुदर्शन श्रेष्ठी के सिवाय राजगृही के प्रायः सभी लोग भयाक्रान्त थे । कोई भी उसका सामना करने और उसे शान्त करने को तैयार नहीं था । परन्तु सभी के अन्तर्मन में उसके प्रति भयंकर प्रतिक्रिया चल रही थी । वह तब प्रतिफलित हुई, जब अर्जुनमाली ने भगवान महावीर के पास मुनि दीक्षा अंगीकार कर ली और अपने छट्ट (बेले) के तप के पारणे के दिन राजगृही नगरी में भिक्षा
१. 'कुछ देखी, कुछ सुनी' (मुनि श्री लाभचंद जी) से संक्षिप्त