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ॐ ४० ® कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ
को हैरान करने वाले मूल कारणरूप (उपादानरूप) कर्म को नहीं पकड़ते, वे पकड़ते हैं-निमित्तों को। अमुक ने मुझे कष्ट दिया। अमुक ने मुझे गाली दी, मेरा अपमान किया, मेरी तौहीन की, मुझे मारा-पीटा, मुझे धोखा दिया। इस प्रकार निमित्त को दोषी, अपराधी मानकर मन से उसे मजा चखाने की बात सोचते हैं, वचन से उसे कोसते हैं, उस पर दोषारोपण करते हैं, गाली या अपशब्द कहते हैं
और काया से उसे कष्ट देते हैं, मारते-पीटते और उसकी हत्या तक कर डालते हैं। उससे युद्ध करते हैं और बदला लेने की ठानते हैं। भगवान महावीर ने ऐसे पामर लोगों को सावधान करते हुए कहा-“हे मानव ! (आत्मन् !) अपने आप का ही निग्रह कर। स्वयं के (कर्मबद्ध आत्मा के) निग्रह से ही तू दुःख से (कर्मों से) मुक्त हो सकता है।" इसी प्रकार पर (निमित्त) से लड़ने वालों को ललकारते हुए उन्होंने कहा-"अपने उपादान (विकारों से युक्त आत्मा) से युद्ध कर, बाहर के (निमित्तों के साथ) युद्ध से तुझे क्या मिलेगा?"१ ऐसी प्रतिक्रिया का दुष्परिणाम
इस प्रकार व्यक्ति अपना उपादान न सुधारकर निमित्तों से लड़ने-भिड़ने, कोसने और संघर्ष करने को मन-वचन-काय से उतारू हो जाता है, किन्तु उस प्रतिक्रिया का घोर परिणाम आता है। यह निश्चित है कि क्रिया की प्रतिक्रिया अवश्य होती है। आघात का प्रत्याघात और घोष का प्रतिघोष भी होता है। कोई व्यक्ति कुएँ में झाँककर आवाज करे-'तेरा बाप चोर' तो बदले में उसमें से वैसी ही आवाज आती है-'तेरा बाप चोर'। घोष का प्रतिघोष प्रायः होता है। अगर व्यक्ति किसी के प्रति दुर्भावपूर्ण दुर्वचन बोलता है, तो उसकी प्रतिक्रिया भी सामान्यतया वैसे ही दुर्भाव के रूप में होती है। यदि कोई व्यक्ति किसी को रौद्रध्यानपूर्वक किसी की हत्या करने या होने तथा उसे मारने-पीटने, ठगने-लूटने अथवा उसे हैरान करने का विचार-चिन्तन करता है, तो सामने वाले व्यक्ति के मन-तन में भी वैसी ही दुर्भावना, दुश्चिन्तन या दुश्चेष्टा होने लगती है। एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट कर दूं
एक राजा अपनी प्रजा के सुख-दुःख की जानकारी के लिए मंत्री के साथ नगरचर्या करने निकला। राजा अत्यन्त भला और प्रजाहित-तत्पर था। इस कारण प्रजा भी उसे बहुत चाहती थी। राजा और मंत्री दोनों बाजार में घूमते-घामते एक चन्दन के व्यापारी की दुकान के सामने से निकले। चन्दन के व्यापारी को देख १. (क) पुरिसा ! अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमुच्चसि।
-आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. ३, उ. ३ (ख) इमेण चेव जुज्झाहि, किं ते जुझेण बज्झओ। -वही, श्रु. १, अ. ५, उ. ३