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३६ . कर्मविज्ञान : भाग ६
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प्रबल होता है, तब व्यक्ति चाहे सच्चरित्र हो, उदार हो, नीति- न्यायपूर्वक श्रम करके जीविका करता हो, परन्तु आभिजात्य गोत्र (कुल) में जन्म नहीं होने से उसके किसी पूर्वज की भयंकर गलती के कारण बहुजन समाज में उसे अनभिजात्य कुलका घोषित कर देने के कारण उसे भी अनभिजात्य ( नीच) गोत्र का माना जाता है। लोगों की दृष्टि में उसका आदर-सम्मान नहीं होता। इसके विपरीत व्यक्ति चाहे माँसाहारी हो, मद्यपायी हो, दुराचारी हो, किन्तु उसका जन्म राजपूत, क्षत्रिय, वैश्य या ब्राह्मण आदि किसी कुल में हुआ है तो आभिजात्य मानकर आदर दिया जाता है। उंच्च गोत्रकर्म के उदय के कारण वह लोगों की दृष्टि में सम्माननीय माना जाता है अथवा अनभिजात्य गोत्र का होते हुए भी किसी उच्च पद, सत्ता या. अधिकार के मिलने से उसे लोगों द्वारा आदर-सम्मान दिया जाता है। उच्च गोत्र और नीच गोत्र ये दोनों गोत्रकर्म के घटक हैं। यह इतना प्रबल नहीं है कि बदला न जा सकें या इसका क्षय, क्षयोपशम या उपशम, नीति- न्याय संवर-निर्जरा आदि धर्म के द्वारा न किया जा सके। रैदास चमार जाति के थे। लोगों की दृष्टि में उनका गोत्र (कुल या जाति) सम्माननीय नहीं था । किन्तु रैदास न्याय-नीति एवं धर्मपूर्वक अपनी जीविका करते थे, किसी के प्रति द्वेष, आसक्ति, वैर-विरोध, ईर्ष्या, संघर्ष उनके मन में नहीं था। संतोषी भी इतने कि किसी ने उनकी स्वेच्छा से अपरिग्रही वृत्ति (गरीबी) देखकर लोहे से सोना बनाने को पारसमणि - दिया, ताकि वे जूते आदि बनाने का चर्मकार का काम छोड़कर अपना जीवन सुख से यापन कर सकें, मगर उन्होंने उस पारसमणि का बिलकुल उपयोग न किया, उसे छुआ भी नहीं । लोगों के द्वारा की जाती हुई निन्दा - प्रशंसा में सम रहे । किन्तु अपनी इस महानता के कारण परम भक्त मीरांबाई ने उन्हें अपना गुरु माना। उनका स्थान समाज में उच्च और महान् बन गया। गोत्रकर्म का क्षय या सजातीय में परिवर्तन अथवा शिथिल बन्ध भी पूर्वोक्त शुद्ध धर्म द्वारा किया जा सकता है।
आयुष्यकर्म का कार्य और उसका क्षय आदि
प्रत्येक जीव का जन्म और मरण दोनों आयुष्यकर्म से बँधे हुए हैं। आयुष्यकर्म भी चार प्रकार का है- नरकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु। इसमें पूर्व के दो आयुष्यकर्म अशुभ और पिछले दो आयुष्यकर्म शुभ माने जाते हैं। आयुष्यकर्म जीव के लिए बेड़ी के समान, परतंत्र बना हुआ बंदी होता है । आयुष्यकर्म जीव के अपने शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार अल्प या दीर्घकाल तक जीव को उसी शरीर, गति, जाति और योनि में बाँधे रखता है। जिस जीव का जितने काल का आयुष्य होता है, उतने काल उसे अपना आयुष्य भोगना ही पड़ता है। उससे पहले वह प्रायः नहीं छूट सकता। परन्तु संवर - निर्जरारूप धर्म के द्वारा अथवा विभाव और पर-भाव से दूर रहकर स्व-भाव में रमण रूप आत्म-धर्म के द्वारा, समभाव द्वारा व्यक्ति पूर्वबद्ध