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धर्म और कर्म : दो विरोधी दिशाएँ ३५
से सम्बन्धित शुभ-अशुभ भावों, परिणतियों, स्वभावों तथा आवश्यकताओं का निर्माण होता है। नामकर्म को एक अद्भुत चित्रकार की उपमा दी है। जैसे चित्रकार मनचाहे शुभ-अशुभ नाना चित्र बनाता है, चित्र में वह शरीर, इन्द्रियों, अंगोपांगों आदि को अच्छे-बुरे, वेडौल - सुडौल, काले-गोरे आदि रूप रंग में दिखाता है । उसी प्रकार नामकर्म जीवों के अपने-अपने शुभाशुभ नामकर्म के उदयानुसार शरीर और शरीर से सम्बद्ध उपर्युक्त वातों का निर्माण करता है । जो व्यक्ति कर्मचेतना से ग्रस्त होते हैं, वे शरीर की इन्हीं रचनाओं को देखकर अहंता, ममता, हीनता-दीनता, विषमता के भाव लाते हैं और प्राप्त शरीर को लेकर नाना सावध या विषम परिणामों से, उसकी रक्षा के लिए खान-पान, मकान, वस्त्रादि- प्रावरण तथा अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करने में ही अहर्निश रचे-पचे रहते हैं, उन्हें प्राप्त शरीर से संवर- निर्जरारूप या ज्ञानादि रत्नत्रयरूप धर्म, तप-त्याग, प्रत्याख्यान, व्रत- नियम आदि करके उक्त कर्म को क्षय करने का, शरीर के प्रति ममत्व त्यागकर धर्म - पालन के लिए कायोत्सर्ग करने, बलिदान करने, अपनी आवश्यकताओं में कमी करने का विरति - संवररूप धर्म करने का विचार ही नहीं होता, न ही भेदविज्ञान की बुद्धि जागती है, सम्यक् बोधि भी प्राप्त नहीं होती, न ही अन्तिम समय में समाधिमरण द्वारा शरीर आदि का व्युत्सर्ग करने की भावना जागती है । फलतः नामकर्म को अधिकाधिक बाँधने के लिए वह शरीर और शरीर से सम्बद्ध सजीव-निर्जीव पदार्थों के लिए दूसरों से संघर्ष, कलह, ईर्ष्या, आक्रोश, द्वेष, वैर- विरोध, युद्ध आदि करता है। पुराने कर्म तो क्षीण किये नहीं जाते, नये और बाँध लेता है। अतः संवर और निर्जरा धर्म के द्वारा नामकर्म के आते हुए आनव को रोका जा सकता है और पूर्वबद्ध नामकर्म के उदय में आने पर समभाव से भोगकर क्षय किया जा सकता है। जैसे पूर्वबद्ध अशुभ नामकर्म के उदय से प्रज्ञाचक्षु पं. सुखलाल जी, पं. चैनसुख जी, अष्टावक्र आदि को अंगविकलता प्राप्त होने पर भी उन्होंने अपने ज्ञानादि गुणों का विकास करके जनता के हित में उनका सदुपयोग किया। मुनि हरिकेशवल का शरीर कालाकलूटा और वेडौल था, परन्तु उन्होंने दीनता - हीनता न लाकर अपने तप - संयम, कायोत्सर्ग एवं भेदविज्ञान व काया से विभिन्न त्याग करके नामकर्म का क्षय किया। अंगविकलता या अंगहीनता उनके धर्माचरण में बाधक न बन सकी। इसी प्रकार नामकर्म को धर्म के विविध अंगों द्वारा क्षीण और निरुद्ध किया जा सकता है, शिथिलबन्ध भी किया जा सकता है। कर्म से धर्म की शक्ति प्रवल है।
गोत्रकर्म के आनव और बन्ध से संवर- निर्जरा द्वारा मुक्ति संभव एक अघातिकर्म है–गोत्रकर्म । वह कुम्भकार की तरह अच्छे-बुरे, घड़े के निर्माणवत् उच्च-नीच गोत्र का निर्माण करता है। जब नीच गोत्रकर्म का उदय भी