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ॐ ३४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ 8
पुरुषार्थ किया, धन, विषय-सुखों के साधन, सुख-सुविधा की सामग्री के अधिकाधिक बटोरने में तथा आसक्तिपूर्वक अधिकाधिक उपभोग में एवं अपनी कामवासनाओं व इच्छाओं की पूर्ति में, अहंकार प्रदर्शन में, लड़ने-भिड़ने आदि में शक्ति का अपव्यय किया। हिंसा, झूठ, चोरी, बेईमानी, तस्करी, लूटपाट, डकैती, ठगी, धोखेबाजी, विश्वासघात, गिरहकटी, मद्य-माँसाहार, द्यूतकर्म, वेश्यागमन, पर-स्त्रीगमन, शिकार, आगजनी, बलात्कार, संग्रह-वृत्ति, परिग्रह, अब्रह्मचर्य-सेवन, ममता-अहंतावृद्धि, कलह, युद्ध, संघर्ष, अभ्याख्यान, पैशुन्य (चुगली), पर-परिवाद (पर-निन्दा), रति-अरति, मायामृषावाद (दम्भ), ईर्ष्या, वैर-विरोध, मिथ्यादर्शन, मद, मात्सर्य आदि पापकृत्यों में, अपनी प्रशंसा, प्रसिद्धि, नामना आदि में अपनी अमूल्य शक्तियों का दुर्व्यय किया। इसके फलस्वरूप पंचविध अन्तराय कर्म का आस्रव और बन्ध किया। इसके अतिरिक्त आत्मा के निजी अनन्त चतुष्टय गुणों में पुरुषार्थ करने के बदले कषायों और नोकषायों तथा विकारों-विभावों में पुरुषार्थ किया। इससे वीर्यान्तराय कर्म का आस्रव और बन्ध हुआ। परन्तु यदि आत्मा तप, त्याग, व्रत, नियम, संयम, प्रत्याख्यान, दशविध धर्म-पालन करे, समता, शान्ति, उपशम, संवेग, वैराग्य, अनुकम्पा, आस्तिक्य, तितिक्षा, सहिष्णुता, उदारता और परमार्थता की साधना करे, तितिक्षु, उपसर्ग-सहिष्णु एवं परमार्थी बने तो पूर्वबद्ध अन्तराय कर्म को उपर्युक्त संवर-निर्जरारूप धर्म के द्वारा तोड़ सकता है। अपनी आत्मिक अनन्त शक्तियों का प्रति क्षण ज्ञानादि रत्नत्रय में सदुपयोग करे, अपने मन-वचन-काय, इन्द्रिय और मन को भी पूर्वोक्त विकारों से दूर रखकर, जागरूकतापूर्वक अपनी आत्म-शक्ति का आत्म-चिन्तन, आत्म-हित, आत्म-शुद्धि और आत्म (स्व-भाव) रमणता में उपयोग करे तो पूर्वबद्ध अन्तराय कर्म का क्षय किया जा सकता है अथवा उसका मार्गान्तरीकरण, उदात्तीकरण, उपशमन तथा निरोध किया जा सकता है। कर्म बलवान् है, परन्तु आत्मा तो उससे भी कई गुना अधिक बलवान् है। कितना ही घना अँधेरा हो, सूर्य का प्रकाश आते ही उसका विलय हो जाता है, वैसे ही कितने ही अन्तराय कर्म बाँधे हुए हों, प्रबल हों, उदय में आए हों, परन्तु अगर मनुष्य तप, त्याग, संयम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र का पूर्ण बल लगाए, उसमें क्षणभर भी, जरा भी प्रमाद न करे तो वे कर्म टूट सकते हैं, उनके बन्धन शिथिल हो सकते हैं, उनका प्रभाव मन्द हो सकता है। नामकर्म : कार्य और स्वरूप
चार घातिकर्मों तथा वेदनीय कर्म के अतिरिक्त तीन अघातिकर्म और हैंनामकर्म, गोत्रकर्म और आयुष्यकर्म। वेदनीय कर्म सहित ये चासें अघातिकर्म शरीर से सम्बन्धित हैं। नामकर्म से हमारे शरीर की शुभाशुभ रचना होती है तथा शरीर