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________________ ॐ धर्म और कर्म : दो विरोधी दिशाएँ * ३३ ॐ सहज आनन्द की अनुभूति करता है। जैसे नमिराजर्षि ने इन्द्र से कहा था-मुझे सहज आत्मिक आनन्द का स्रोत प्राप्त हो गया है, उस स्रोत की प्राप्ति हो जाने पर मुझे ये कामभोग आनन्द नहीं दे सकते, ये शल्य हैं, विषतुल्य हैं, अतृप्तिवर्द्धक हैं। अतः धर्मनिष्ठ व्यक्ति में जब शुद्ध राग-द्वेषरहित चेतना जाग्रत होती है, तब वह सहज सुख, सहज आनन्द, पदार्थ निरपेक्ष, कामभोगरहित सुख का स्रोत प्राप्त र र लेता है। उसे फिर सातावेदनीय कर्म (पुण्यकर्म) से प्राप्त सुख की आकांक्षा नहीं होती। वह सातावेदनीय और असातावेदनीय दोनों के उदय के समय सावधान होकर निरपेक्ष एवं समभाव से उन्हें भोगकर क्षय (निर्जरा) कर डालता है तथा नये आने वाले इन कर्मों को त्याग, तप, वैराग्य आदि से रोक (संवर कर) लेता है। दुःख और कष्ट को समभाव से सहकर धर्म के द्वारा कर्म पर विजय पा लेता है। अन्तराय कर्म : स्वरूप, कार्य, निरोध और क्षय का उपाय चार घातिकर्मों में एक कर्म है-अन्तराय। यह मनुष्य की शक्ति को अवरुद्ध कर देता है, शक्ति को प्रगट होने नहीं देता, विघ्न-बाधाएँ पैदा करता है। मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी विशेषता है-शक्ति, आत्म-वीर्य का प्रकटीकरण। आत्मा में अनन्त शक्ति है दान, लाभ, भोग-उपभोग और वीर्य की। अन्तराय कर्म को भण्डारी की उपमा दी गई है, जो राजा की आज्ञा होने पर भी पुरस्कार-प्राप्त व्यक्ति को पुरस्कार की राशि नहीं देता, टरकाता रहता है। वह विघ्न-बाधा उपस्थित करता है। शुद्ध आत्मारूपी राजा का आदेश है कि तुम्हारे आत्म-भण्डार में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनन्द और शक्ति का असीम भण्डार है, उसे प्राप्त कर लो, परन्तु भण्डारीरूपी अन्तराय कर्म उस निधि को देने में बाधा उपस्थित करता है। आत्मा ने ही पूर्व-जन्म में या इसी जन्म के पूर्वकाल में किसी के दान, लाभ, भोग-उपभोग और वीर्य के प्रदान करने में, विकास करने में अथवा अपने राग-द्वेष-मोह तथा क्रोधादि कषायों और हास्यादि नौ नोकषायों का विसर्जन (व्युत्सर्ग) करने अथवा मन्द व शिथिल करने में घोर प्रमाद किया, उपेक्षा की, अपनी तन, मन, वचन, धन, साधन, विद्या, बुद्धि एवं तप, त्याग, व्रत-प्रत्याख्यान, नियम-पालन आदि की जो शक्तियाँ थीं, उनका अनुपयोग या दुरुपयोग किया, सदुपयोग नहीं किया अथवा अन्यान्य सहायता-याचकों, अभाव-पीड़ितों, दुर्बलों, रुग्णों, अंगविकलों, अवलम्बन-अपेक्षकों के लिये उनका यथायोग्य सदुपयोग या ममत्व-विसर्जन नहीं किया। अपनी शक्तियों का उपयोग या व्यय केवल अपने स्वार्थों को सिद्ध करने में तथा दूसरों के नैतिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक विकास में विघ्न-बाधा उपस्थित करने में किया, दूसरों के दान देने-लेने में, शुभ योगों का लाभ लेने में, शुभ योगों का शुभ संस्थाओं, शुभ प्रवृत्तियों के संचालन में, सेवा, निर्भयता एवं परोपकार के कार्य में रोड़े अटकाने में
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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