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ॐ ३२ * कर्मविज्ञान : भाग ६ *
और दूसरे का नाम है-असातावेदनीय। सातावेदनीय कर्म का जब उदय होता है, तब जीव का मन सुख से और असातावेदनीय कर्म का उदय होने पर दुःख से भर जाता है। सातावेदनीय कर्म के प्रभाव से जब व्यक्ति को सुख मिलता है, तब सुख की मिठास में आसक्त होकर व्यक्ति अधिकाधिक सुख-लालसा बढ़ाता है, विभिन्न पदार्थों में सुख की कल्पना करता है। परन्तु पदार्थ में अपने आप में सुख या दुःख नहीं है, वह अज्ञानी और विवेकमूढ़ मनुष्य की कल्पना है कि अमुक वस्तु को पाने में सुख है, अमुक को पाने में नहीं। एक आचार्य ने 'मधुबिन्दु' का दृष्टान्त देकर समझाया है कि मधु की बूँद की मिठास के लिए लालायितं व्यक्ति जिस प्रकार तीक्ष्ण धार वाली तलवार का विचार नहीं करता, जिस पर मधु लिपटा हुआ है, जिसे चाटने से जीभ कटे बिना नहीं रहेगी। इसी प्रकार अज्ञानी मिथ्यादृष्टि अल्पज्ञ संसारी जीव जिस पदार्थ-प्रतिबद्ध सुख के लिए तरसता है, उससे कर्मबन्ध लिपटा हुआ है, जो अनेक भयंकर दुःखों का जनक है अर्थात् जो सुख आसक्तिपूर्वक भोगा जा रहा है, वह सुखाभास है, अनेक दुःखों को जन्म देने वाला है। वह वास्तव में दुःख का बीज है। ___ सातावेदनीय कर्म के उदय से प्रियता की और असातावेदनीय कर्म के उदय से अप्रियता की अनुभूति होती है। सातावेदनीय कर्म के उदय से मनुष्य को सुख और असातावेदनीय कर्मोदय से दुःख मिलते हैं। सुख या दुःख मिलना एक बात है और सुख या दुःख के साधन मिलना दूसरी बात। सातावेदनीय = पुण्य (शुभ) कर्म के उदय से सुख और असातावेदनीय = पाप (अशुभ) कर्म के उदय से दुःख होता है, यह कर्मसिद्धान्त-सम्मत है। परन्तु इन दोनों से क्रमशः सुख के साधन या पदार्थ तथा दुःख के साधन या पदार्थ मिलते हैं, यह कर्मसिद्धान्त-सम्मत बात नहीं है। हम जानते हैं कि मनोज्ञ-अमनोज्ञ (अच्छे या बुरे) पदार्थ मिलने पर क्रमशः सुख और दुःख का वेदन (अनुभव) जीव करता है। रेगिस्तान में ग्रीष्म ऋतु में अत्यन्त पिपासा लगी, बड़ी मुश्किल से एक प्याला पानी मिला तो व्यक्ति सुख का अनुभव करता है। पानी अपने आप में सुख या दुःख का अनुभव नहीं है। पानी सुख का निमित्त या हेतु बन सकता है, किन्तु पानी पीना सुखानुभव नहीं है, चेतना सुखानुभव करती है। यदि पानी पीने से ही सुखानुभूति होती है, तो सर्दी के दिनों प्यास न होने पर भी पानी अधिकाधिक पिलाया जाए तो उससे सुखानुभूति नहीं होगी। यही निषेधात्मक तथ्य पाँचों इन्द्रियों के विषयों तथा मन के विषयों में सुखानुभूति या सुखासक्ति का है। वास्तव में जो ज्ञाता-द्रष्टा या तटस्थ धर्माराधक है, वह सुख के साधन माने जाने वाले पदार्थों में भी सुखानुभूति या सुखासक्ति नहीं करेगा और दु:ख के संयोगों या दुःख के साधनों के मिलने पर भी दुःखानुभूति नहीं करेगा, वह राग-द्वेष या प्रियंता-अप्रियता के भाव से दूर रहकर आत्मा के