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* धर्म और कर्म : दो विरोधी दिशाएँ ३१
समभाव से सहता है, वह दुःख को भोगता है रोता हुआ और हाय-हाय करता हुआ। धर्म में विश्वास न रखने वाला व्यक्ति अपने आचरण और व्यवहार में परिष्कार नहीं कर पाता। परन्तु धार्मिक व्यक्ति कष्ट-सहिष्णु बनकर जीवन का आनन्द प्राप्त कर लेता है।
धार्मिक की तीसरी विशेषता यह होती है कि वह तन और मन के सुख से परे आत्मिक सुख को प्राप्त कर लेता है जो अनुभव का सुख है, चैतन्य का सुख है, जबकि मिथ्यादृष्टि या अज्ञानी व्यक्ति के सुख की सीमा शारीरिक और मानसिक सुख में ही परिसमाप्त हो जाती है। इन दोनों से आगे के सुख की वह कल्पना भी नहीं कर पाता। शरीर के अंगों को कोमल स्पर्श मिला, जिह्वा से स्वाद मिला, कानों से प्रिय और मधुर शब्द सुना, आँखों से सुन्दर रूप देखा, अत्यन्त सुख मिला, ये इन्द्रियाँ और मन मनोज्ञ शब्दादि पाकर तृप्त हो गए। इस प्रकार अज्ञानी मिथ्यात्वी एवं धर्मविहीन व्यक्ति के सुख की कल्पना इन्द्रिय-विषयों में ही सीमित हो जाती है। वह यह नहीं सोच पाता कि इन्द्रिय-विषयों से आगे भी ऐसा सुख और आनन्द है, जो स्वाधीन, अव्याबाध, असीम और आत्मिक है। ऐसा व्यक्ति सातावेदनीय कर्मजनित, पदार्थनिष्ठ, वैषयिक तथा मनःकल्पित सुख में रचापचा, आसक्त और मूर्च्छित रहता है। अधर्म-परायण व्यक्ति जहाँ वेदनीय कर्म के उदय से सुख-दुःख का भोग (अनुभव) करता है, वहाँ धर्म-परायण व्यक्ति कर्मजनित सुख और दुःख दोनों को भोगता नहीं, वह निर्लिप्त रहता है । उसकी दृष्टि तन, मन, बुद्धि और इन्द्रियों से जनित मनःकल्पित सुख से आगे दौड़ती है। जबकि धर्मनिष्ठ व्यक्ति की दृष्टि इन्द्रियजनित, पदार्थ-प्रतिबद्ध, वेदनीय कर्मोदय से प्राप्त सुख-दुःख से परे, वास्तविक अमूर्त्त आत्मिक-सुख (आनन्द) पर टिकती है, जो अचिन्त्य, अवर्णनीय और अतर्क्य होता है।
कर्मजनित सुख और धर्मजनित सुख में अन्तर
दूसरे शब्दों में कहें तो-जो सांसारिक और वेदनीय कर्मजनित सुख है, जिस पर आसक्ति और घृणा से, राग और द्वेष से पुनः कर्मबन्ध होता है, जबकि धर्मजनित आत्मिक सुख, जोकि धर्मनिष्ठ व्यक्ति द्वारा अपनाया जाता है, कर्मक्षय का कारण बनता है! वेदनीय कर्म से प्राप्त सुख-दुःख को राग-द्वेष-निर्लिप्तभाव से भोगकर धर्मनिष्ठ जीव जितने जितने अंशों में क्षय करता जाता है, उतने- उतने अंशों में वह सहज, स्वाधीन आत्मिक सुख को प्राप्त करता है।
सुख और दुःख में राग-द्वेष से हानि
कर्मविज्ञान की दृष्टि से प्रत्येक छद्मस्थ प्राणी के जीवन के दो साथी हैं - सुख और दुःख। ये दोनों वेदनीय कर्म से जुड़े हुए हैं। एक का नाम है - सातावेदनीय