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________________ * ३० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ * वाले में तीसरा तत्त्व होता है। धर्माराधना न करने वाले की दृष्टि तीसरे तथ्य पर जाती है-सुख-दुःख देने वाले पर। जो व्यक्ति धर्माचरण नहीं करता, जिसकी रुचि धर्माचरण में नहीं है, उस पर कभी दुःख आ पड़ता है तब उसकी दृष्टि इस तीसरे तथ्य पर जाती है। सर्वप्रथम वह यही सोचता है-"उसने मुझे दुःखी कर डाला। वह ऐसा नहीं करता तो मैं दुःखी नहीं होता।" वह अपने द्वारा पूर्व में बाँधे हुए असातावेदनीय कर्म का ही यह फल है, यह दुःख मेरे द्वारा ही उपार्जित असातावेदनीय कर्म का फल है। निमित्तों को तथा कभी-कभी वह धर्म, धर्म-गुरु एवं भगवान को भी कोसने लग जाता है। वह मिथ्या समझ और कल्पना के जाल में स्वयं फँसता है, औरों को फँसाता है और उन निमित्तों के प्रति इसके तथा उन सबके प्रति घृणा, द्वेष और प्रतिशोध की दुर्भावना जागती है। इस प्रकार अधार्मिक व्यक्ति की दृष्टि में तीन तथ्य होते हैंदुःख, दुःख पाने वाला और दुःख देने वाला कल्पनाजन्य निमित्त। इसके विपरीत जिसकी रुचि और दृष्टि धर्माराधना पर है, जो धर्माचरण को जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग मानता है, उसके सामने तीसरा तथ्य कभी नहीं होता, वह अपने उपादान को ही देखता है; इसलिए दो ही तथ्य उसके समक्ष होते हैं-सुख-दुःख तथा सुख-दुःख पाने वाला। उसका सारा ध्यान स्वयं के आचरण पर केन्द्रित होता है। दूसरी दृष्टि से कहें तो धर्म और कर्म, ये दो तत्त्व ही उसकी विवेक-परायण बुद्धि में होते हैं। वह यही सोचता है-मैंने ही पूर्व में कभी शुद्ध धर्म को छोड़कर साताअसातावेदनीय कर्म बाँधा होगा। इसके अतिरिक्त सुख-दुःखदाता कोई भी तीसरा तत्त्व उसकी दृष्टि में नहीं आता। वह सारा दायित्व अपने पर ओढ़ता है, किसी दूसरे को उत्तरदायी नहीं मानता। वह वेदनीय कर्म के सारे परिणामों का उत्तरदायित्व अपने पर लेता है। धार्मिक व्यक्ति की तीन विशेषताएँ __ धार्मिक व्यक्ति की यह सबसे बड़ी विशेषता है, जिससे उसे अपने व्यवहार, आचरण और प्रवृत्ति के परिष्कार का मौका मिलता है। उसके जीवन की दिशा और प्रकृति बदल जाती है। ऐसे धार्मिक व्यक्ति की दूसरी विशेषता यह है कि वह वेदनीय कर्मजनित सुख और दुःख में समभाव रखता है, सुख के समय फूलता नहीं, दुःख के समय घबराता नहीं। अपना सन्तुलन नहीं खोता। सम्यग्दृष्टि धार्मिक व्यक्ति दुःख आने पर समभाव से, शान्ति और धैर्य से सहते हैं। वे अपने भेदविज्ञान द्वारा उस दुःख को हँसते-हँसते झेलकर दुःख में से सुख का पहलू निकाल लेते हैं। जबकि अधार्मिक मिथ्यादृष्टि व्यक्ति अपने दुःख के लिए दूसरों पर आरोप लगाकर स्वयं को उत्तरदायी नहीं मानता, न ही कष्ट को
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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