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________________ ॐ पतन और उत्थान का कारण : प्रवृत्ति और निवृत्ति 8 ५२७ ॐ सम्बन्धित होने से ही होता है। अतः पापकर्मरूप पर-भावों से रागादियुक्त सम्बन्ध न जोड़ने से ही संवर का लाभ मिल सकता है। पर-पदार्थों की ओर नहीं झाँकने वाले को आध्यात्मिक विकासारोहण आशय यह है कि जब व्यक्ति सजीव-निर्जीव पर-पदार्थों की ओर रागादि दृष्टि से ताक-झाँक करेगा ही नहीं, वह सिर्फ अपनी आत्मा में ही झाँकेगा, आत्म-हित का ही चिन्तन-मनन करेगा, तब किसकी हिंसा करेगा? किससे व किसके लिए झूठ बोलेगा? चोरी क्यों और किसके लिए करेगा? राग-द्वेष, क्रोधादि कषाय, हास्यादि नौ नोकषाय, ईर्ष्या, पर-निन्दा, चुगली आदि पापकर्म भी क्यों और किसलिए करेगा? निश्चित है, ऐसा साधक अवश्य ही इन पापस्थानों से विरत होकर अपने आत्म-भावों में ही स्थिर हो जायेगा, उन्हीं में रमण करेगा तथा परमात्म-भाव = वीतराग-भाव के निकट पहुँचने का पुरुषार्थ करेगा। यही तो संवर और निर्जरा का मार्ग है। ‘आचारांगसूत्र' में स्पष्ट कहा है-“वह आत्म-सम्प्रेक्षी साधक आगे चलकर (संयम में) उत्थित (उद्यत), स्थितात्मा (आत्म-भावों में स्थित), अस्नेह (अनासक्त), अविचल (परीषहों और उपसर्गों में अडोल रहने वाला), अध्यवसाय (लेश्या) को संयम से या आत्म-भाव से बाहर न ले जाने वाला साधक अप्रतिबद्ध होकर परिव्रजन (विचरण) करता है।" पापकर्मों से विरत होने वाले व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के ऊर्ध्वारोहण का यह सुगम मार्ग है।२ . .. पापस्थान अगणित, किन्तु उन सबका अठारह में परिगणन आगमों में पापस्थान के १८ प्रकार बताये हैं, किन्तु वे अगणित हैं, भले ही उन्हें अठारह भेदों में परिगणित किया गया है। जैसे-शास्त्रकारों ने एक प्राणातिपात के ही १८२४१२० गिनाए हैं।३ इसी प्रकार अन्य पापस्थानों में से प्रत्येक के कई-कई भेद हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्येक पापस्थान के तीव्र, मन्द और १. 'जैन परम्परा, दिसम्बर १९९४' के अंक से भावांश ग्रहण २. एवं से उठ्ठिए ठियप्पा अणिद्दे अचले चले अबहिलेस्से परिव्वए। -आचारांग, श्रु. १, अ. ६, सू. ६८६ ३. प्राणातिपात (हिंसा) के १८२४१२० प्रकारों का गणित-जीवों के कुल भेद ५६३, इन्हें . 'अभिहया' आदि १० प्रकारों से गुणा करने पर ५६३० हुए। फिर इन्हें राग-द्वेष से गुणा करने ५६३० x २ = ११२६० - ३ (मन-वचन-काया ३ योग) से = ३३२८0 x ३ (तीन करण) से = १०१३४०, फिर इन्हें ३ काल से गुणित करने पर ३०४०२० हुए। फिर इन्हें अरिहन्त, सिद्ध, साधु, देव, गुरु और आगम की साक्षी इन ६ से गुणा करने पर ३०४०२0 x ६ = १८२४१२० प्रकार हिंसा के होते हैं। -सं.
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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