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* ५२८ - कर्मविज्ञान : भाग ६ 8
मध्यम के भेद से तथा उनके विभिन्न पर्यायों के भेद से अनेकानेक भेद हो जाते हैं। 'प्रश्नव्याकणसूत्र' में हिंसा, मृषावाद, चोरी आदि पापों (आस्रवों) के प्रत्येक के लगभग ३०-३० पर्यायवाची नाम बताए हैं। फिर उन पापासवों के अध्यवसायों, उपायों, प्रकारों आदि की भिन्नता से नाना भेद हो जाते हैं। किन्तु केवलज्ञानी तीर्थंकरों ने इन सब हिंसादि पापों-पापस्थानों को १८ प्रकारों में परिगणित कर दिया है। अतः इन १८ पापस्थानों के जितने भी पर्याय या प्रकार हैं, वे सभी पापकर्मबन्ध के कारणभूत समझने चाहिए। इनमें से एक पापस्थान के सेवन से भी जीव जब कर्मों से भारी (गुरु) होकर अधोगति को प्राप्त होते हैं, तब फिर, सारे पापस्थानों के सेवन से तो अधमाधम अधोगति प्राप्त हो, इसमें तो कहना ही क्या?
फिर भी एक बात निश्चित है कि इन सब पापस्थानों की उत्पत्ति विभावों या सजीव-निर्जीव पर-भावों (पर-पदार्थों) को देखने से होती है; दूसरे शब्दों में कहें तो अपने आप (आत्मा) को न देखने से। यदि जीव रागादि विकारों से अलिप्त होकर अपने आप को ही देखे, इनकी ओर देखे ही नहीं, तो पापकर्मों के आस्रव और बन्ध से बचकर संवर और निर्जरा का महालाभ प्राप्त कर सकता है।
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