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________________ 8 ५२६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ 8 हो जाता है, वह अपनी ही आत्मा को पर-भावों से हटने (दमन करने) को बाध्य कर देता है, जिससे वह पापकर्म का बन्ध नहीं करता। बल्कि कई बार आत्म-भावों में रमण तथा पूर्वबद्ध पापकर्मों को समभावपूर्वक रहने में आत्म-दमन करके भाव-संवर और सकामनिर्जरा का लाभ भी अनायास ही पा लेता है। इस प्रकार पापकर्मों में प्रवृत्ति से जो पतन की संभावना थी, उसे इस सूत्रपाठ के निर्देश द्वारा रोककर उत्थान के मार्ग पर आत्मा को आरूढ़ करने का यह आसान और अचूक उपाय है। रागादियुक्त सम्बन्ध जोड़ने से नरक का निर्माण होता है ___ 'ज्वॉपाल सात्र' का कथन है-“The other is Hell."-यह जो दूसरा (पर-भाव) है, वही नरक है। वास्तव में नरक निश्चित ही दूसरे की वजह से होता है। परन्तु प्रश्न यह है कि यह दूसरा 'दूसरा' क्यों है ? “Why the other is other ? because I is I.”-क्योंकि मैं, मैं हूँ; इस कारण दूसरा दूसरा। निश्चित ही दूसरा (पर) सदा 'मैं' के परिप्रेक्ष्य में पैदा होता है। इसी कारण प्रबुद्ध पुरुष कहता है-“Not the other out, Otherness is Hell."-व्यक्ति निपट अकेला हो, दूसरा (विभाव या पर-भाव) कोई संयुक्त होने के लिए हो ही नहीं; क्योंकि (व्यक्ति के लिए) दूसरापन ही नरक (का कारण) है। व्यक्ति (आत्मा) अकेला होता है (अर्थात् केवल निजस्वरूप में स्थित होता है) तो उसके मन में कोई भी बुराई, कोई भी (क्रोधादि कषायरूप या रागादिरूप) विकृति पैदा हो ही नहीं सकती। 'उपनिषद्' में भी कहा है-“द्वितीयाद वै भयम्।"-दूसरे से अवश्य ही भय है। एकाकी अकेला व्यक्ति (आत्मा) किससे मोह करेगा? किससे ईर्ष्या करेगा? 'उपनिषद्' का वाक्य है-“तत्र को मोहः कः शोक एकत्व मनुपश्यतः।"-जहाँ एकत्व की (अकेले आत्मा की) दृष्टि से अनुप्रेक्षण हो, वहाँ क्या मोह है, क्या शोक है? मोह -शोकादि विकार वहीं पैदा होते हैं, जहाँ व्यक्ति रागादि या कषायादि से युक्त हे.क. पर-पदार्थों से जुड़ता है। व्यक्ति जैसे ही दूसरे (विभावयुक्त पर-भाव) से संयुक्त होना प्रारम्भ करता है, वैसे ही सम्बन्धों के साथ रागादि जुड़ जाते हैं। सम्बन्धों की बुनियाद ही प्रायः राग और द्वेष पर रखी होती है। ये राग-द्वेष ही फैलकर क्रोध, मान, माया, लोभ, मद, मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष, वैर-विरोध आदि विकृतियों के पैदा होने के हेतु बनते हैं। ये ही सब विकृतियाँ मनुष्य के मन में नरक का निर्माण करती हैं। निश्चित ही इन सब बुराइयों का जन्म आत्मा के द्वारा दूसरे से (रागादि को लेकर) १. सव्वभूयप्पभूयस्स समं भूयाइं पस्सओ। पिहिआसवस्स दंतस्स पावकम्मं न बंधइ॥ -दशवकालिक ४/९
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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