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ॐ पतन और उत्थान का कारण : प्रवृत्ति और निवृत्ति ॐ ५२३ ॐ
गहरी खुदाई में चला जाता है, उसे कोयले के साथ-साथ हीरा भी मिल जाता है। पन्ने की खान में गहरी खुदाई में जाने पर ही पन्ना मिल पाता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति अन्तरात्मा की गहराई में जाता है, उसे आत्मा के निजी गुणों की बहुमूल्य सम्पदा मिलती है। जो उच्चदर्शी अर्थात् आदर्श-द्रष्टा नहीं है, वह निम्न दृष्टि पुरुष प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य आदि पापों को ही पाता है। - सामान्यतया लोग यह मानते हैं कि आँखें (चर्मचक्षु) खुली रहें, तभी व्यक्ति रंग, प्रकाश या बाह्य पदार्थों को देख सकता है, परन्तु यह एकान्त और अनुभूतिहीन तथ्य है। अनुभवी और अन्तर्द्रष्टा पुरुषों का यह अनुभव है कि आँखें बंद करने पर अन्तर की आँखों से प्रकाश, रंग एवं अज्ञात सत्य ज्ञात होने लगते हैं, दिखाई देने लगते हैं। होना चाहिए अन्तरात्मा में गहरी डुबकी लगाने वाला दृढ़-विश्वासी साधक, उसे अन्तर में गोता लगाने पर धीरे-धीरे आत्मिक गुणों से तथा सत्य से साक्षात् होने लगता है। फिर वह बाहर को देखने के चक्कर में नहीं पड़ता, न ही अन्तर के नेत्रों से बाहर के पर-पदार्थों को देखने-जानने का प्रयास करता है।
पर-पदार्थ और उन्हें देखने से पापस्थानों की उत्पत्ति कैसे? . शरीर और शरीर से सम्बन्धित सभी सजीव-निर्जीव वस्तुएँ पर-भाव में समाविष्ट हैं। उनके प्रति व्यक्ति जब अपनी दृष्टि गड़ाता है, तब या तो राग उत्पन्न होता है या उत्पन्न होता है द्वेष। आसक्ति और घृणा, मोह और द्रोह, ममता और अरोचकता आदि राग-द्वेष के ही पर्याय हैं। इन दोनों से अशुभ (पाप) कर्म का बन्ध हो जाता है।
इस प्रकार दूसरों को, पर-पदार्थों को देखने का अभ्यासी या प्रमादी मानव अपने आप (आत्मा) को नहीं देख पाता, इसी कारण उसका मन मानसिक तनावों से, कुण्ठता से, उद्विग्नता से, कभी आत्म-हीनता से और कभी गौरवग्रन्थि से घिर जाता है। दूसरों को देखते-देखते मानव अपनी जिंदगी से-बहुमूल्य मानव-जीवन से निराश-हताश, उदास, मनहूस, असन्तुष्ट, असहिष्णु और क्लान्त होकर बैठ जाता है, वह कुछ करने को उत्साहित नहीं होता। वह रात-दिन दूसरों के विषय में चिन्तन करता रहता है। किसी को देखकर उसे राग उत्पन्न होता है, किसी को देखकर भय, उत्तेजना, घृणा, क्रोध, द्वेष, वैर, मोह, ईर्ष्या, आवेश और उन्माद जाग्रत होता है। ऐसा व्यक्ति, जो दूसरों को-पर-पदार्थों को देखने में ही संलग्न
१. 'मन का कायाकल्प' से भावांश ग्रहण, पृ. १५६ २. वही, पृ. १५७