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________________ ॐ .५२२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ * साथ किसी ने अभद्र व्यवहार किया। दूसरा होता तो झट उबल पड़ता और गुस्सा, द्वेष या मारपीट पर उतर आता, मगर वह शान्त रहा। उसके मित्रों ने कहा“इसने आपके साथ बहुत ही अशिष्ट व्यवहार किया है, आप इसका बदला लीजिए।" उच्चदर्शी देकार्ते ने सहजभाव से कहा-"जब कोई मेरे साथ अभद्र व्यवहार करता है तो मैं अपनी आत्मा को उस ऊँचाई तक ले जाता हूँ, जहाँ शुद्ध आत्मा के सिवाय कोई भी व्यवहार उसे छू नहीं सकता।" यही उच्चदर्शित्व का सिद्धान्त अर्जुन मुनि, गजसुकुमार मुनि आदि के जीवन में उतर गया था। उनके साथ घोर यातना का व्यवहार हुआ, फिर भी वे उच्चदर्शी बनकर शुद्ध आत्मदर्शी रहे। इसी कारण समस्त पापस्थानों से उन्होंने विरति प्राप्त की और उसके फलस्वरूप भगवदुक्त वचन के अनुसार वे ऊर्ध्वारोहण करके लोक के अग्र भाग में स्थित हो गए, अर्थात् परम शुद्ध, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, सर्वदुःखरहित हो गए। यह है पापकर्मों-पापस्थानों से विरत होने का भगवान द्वारा प्ररूपित मूलमंत्र।' आत्मा से आत्मा को सम्यक् प्रकार से देखो-जानो. ___ यही कारण है कि भगवान महावीर ने आत्मार्थी एवं मुमुक्षु साधक को निर्देश दिया-“संपिक्खए अप्पगमप्पएणं।"-अपने आप का अपनी आत्मा से सम्यक् प्रकार से प्रेक्षण करो = देखो। अर्थात् आत्मा के द्वारा आत्मा को भलीभाँति देखो। यह तभी हो सकता है जब व्यक्ति दूसरों को न देखकर अपने आप को देखे, यानी अन्तर की गहराई में डूबकर अपने अन्तस्तल में जो आवृत है, उसे अनावृत करे; जो सुषुप्त है, उसे जाग्रत करे; जो कुण्ठित है, उसे भेदविज्ञान द्वारा सक्षम बनाए। आत्मा को आत्मा से देखने का रहस्यार्थ ___ कुछ भौतिकवादी या तार्किक लोग यह कहते सुने जाते हैं कि अपने आप को तो सब जानते-देखते हैं, उसका क्या देखना-जानना? किन्तु यह बात यथार्थ से दूर है। अल्पज्ञ या राग-द्वेष से क्लिष्ट मानव, जितना जानता-देखता है, उससे कई गुणा-एक अपेक्षा से कहें तो, सहस्रों गुना जानना-देखना अभी बाकी है। जो समुद्र के ऊपरी सतह पर देखता है, उसे मिलते हैं-छोटे-छोटे शंख, सीपियाँ, कीचड़, घास आदि। परन्तु जो समुद्र में गहरा गोता लगाता है, गहराई में जाता है, उसे मोती मिलते हैं, हीरा, पन्ना आदि भी मिल सकते हैं। कोयले आदि की खान में ऊपर तो धूल और पत्थर ही दृष्टिगोचर होते हैं; जो खान की गहराई में, यानी १. (क) “जैनभारती, अक्टूबर १९९१' से भाव ग्रहण (ख) देखें-अन्तकृद्दशांगसूत्र में अर्जुन मुनि एवं गजसुकुमार मुनि का संयमी जीवन वृत्त २. दशवैकालिकसूत्र विवित्त चरिआः बीआ चूलिआ, गा. १२
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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