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________________ पतन और उत्थान का कारण प्रवृत्ति और निवृत्ति ५२१ महावीर ने कहा - " इसलिए जो आतंकदर्शी (पापकर्म से भय खाने वाले) हैं, वह तत्त्वज्ञ अतिविद्वान् अथवा त्रिविध विद्याओं का ज्ञाता परम ( परमार्थ या कर्ममुक्तिरूप मोक्ष) को जानकर पापकर्म नहीं करता । अर्थात् वह स्वयं पापानुबन्धी कर्म नहीं करता, न ही दूसरों से कराता है, न ही पापकर्म का या करने वाले का अनुमोदन करता है।” 'आचारांगसूत्र' के अनुसार - " जहाँ पापकर्मों से बचने का प्रश्न हो, वहाँ समता (ज्ञाता-द्रष्टाभाव - माध्यस्थ्यभावरूप धर्म) का विचार करके अपनी आत्मा को प्रसन्न ( स्वच्छ = राग-द्वेष से अकलुषित) रखे।" पापकर्मों से वही दूर रह सकता है, जो अपनी दृष्टि ऊँची (शुद्ध आत्मा या परमात्म-तत्त्व में ) रखता है, क्षुद्र कामभोगों या पापकर्मों की ओर निम्न दृष्टि नहीं रखता। इसीलिए भगवान महावीर ने कहा-“उच्च (उन्नत) दृष्टि वाला (उच्चदर्शी) साधक ही पापकर्मों से दूर रहता है । "9 अपने आप को न देखने से मनुष्य पापस्थानों की ओर बढ़ता है इन दोनों सूत्रों का तात्पर्य यह है कि जो मनुष्य पापकर्मों से बचना चाहता है, वह अपनी आत्मा को राग-द्वेष के भावों से दूर शुद्ध रखे, अपने स्वच्छ स्वरूप में रखे तथा पर-भावों-सर्जीव - निर्जीव पर - पदार्थों, विभावों को न देखकर अपने आप को अपनी शुद्ध आत्मा (परमात्मभावरूप) को देखें । मनुष्य के पास देखने के लिए दो नेत्र हैं। पर आश्चर्य है, उन दोनों नेत्रों से वह स्वयं ( अपने आप ) को न देखकर, दूसरों (पर-पदार्थों - सजीव-निर्जीव -पर-भावों और विभावों) को देखता है। इसी कारण प्राणातिपात आदि अठारह ही पापस्थान उसके मन-वचन-काया में प्रादुर्भूत हो जाते हैं और वह उन पापकर्मों के प्रवाह में बह जाता है । फलतः उसके जीवन में अशान्ति, असन्तोष, तनाव, चिन्ता, भय, उद्वेग, व्याकुलता आदि अनेक समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। पापस्थानों से विरत होने का दूसरा मूलमंत्र उच्च (उन्नत) दृष्टि वाला साधक पापकर्मों से दूर रह सकता है, यह भगवत्कथन भी बहुत रहस्यपूर्ण है। जो व्यक्ति निम्न दृष्टि वाला होगा, वह बात-बात में राग, द्वेष, कषाय आदि से घिर जाएगा। प्रसिद्ध दार्शनिक देकार्ते के १. (क) तम्हाऽतिविज्जो परमं ति णच्चा, आयंकदंसी न करेइ पावं । (ख) समयं तत्थुवेहाए, अप्पाणं विप्पसायए । (ग) अणोमदंसी निसण्णे पावेहिं कम्मेहिं । - आचारांग, श्रु. १, अ. ३, उ. २ -वही, श्रु. १, अ. ३, उ. ३ - वही, श्रु. १, अ. ३,. उ. २
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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