SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 540
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ® ५२०. ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ मुँह जलाती है, मदिरा पीने पर वह नशा चढ़ाती है। इसी प्रकार पापकर्म से आत्मा ... का संयोग होने पर वह स्वयमेव समय पर फल दे देता है। पूर्वकृत पापकर्मों का फल देर-सबेर भोगना ही पड़ता है ___ चाहे लाखों-करोड़ों वर्ष बीत जाएँ, तो भी किये हुए पापकर्म का दण्ड तो अवश्यमेव भोगना पड़ता है, उसमें तो विकल्प ही नहीं है। कृत कर्मों को भोगे बिना कोई छुटकारा नहीं है। भगवान महावीर के २७ भवों की परम्परा को ही देख लीजिए-मरीचि के भव में बाँधे हुए नीच गोत्रकर्म के फलस्वरूप उन्हें १४वें भव. तक लगातार याचक कुल में जन्म लेने का दण्ड भोगना पड़ा। फिर भी वे कर्म सत्ता (संचित) में से समाप्त नहीं हुए। अन्तिम २७वें भव में उन कर्मों के फलस्वरूप उन्हें देवानन्दा की कुक्षि में (गर्भ में) ८२ दिन तक रहना पड़ा। तभी उस कर्म से छुटकारा मिला। भगवान महावीर को भी अनेक भवों तक पापकर्म का फल भोगना पड़ा इसी प्रकार भगवान महावीर ने १८३ त्रिपृष्ठ वासुदेव के,भव में शय्यापालक के कान में गर्मागर्म खौलता हुआ शीशा डलवाकर उसे मौत के घाट उतारा इत्यादि अनेक पापकर्मों के फलस्वरूप उन्हें १९वें भव में नरक में जाना पड़ा और वहाँ कृत पापकर्मों के दण्ड के रूप में भंयकर यातनाएँ भोगनी पड़ीं। फिर भी वह कर्म सत्ता में से समाप्त नहीं हुआ। फलतः २७वें (तीर्थंकर के) भव में उनको अपने कानों में खीले ठुकने की सजा मिली। अल्प समय में किये हुए घोर पापकर्म की सजा कितनी भारी और कितने भवों तक भोगनी पड़ी। इसलिए कहा है"नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि।" "शतकोटि कल्पों तक में कृत कर्मों का फल भोगे बिना वे क्षीण नहीं होते। जिसमें निकाचितरूप से बँधे हुए पापकर्मों का फल तो कितने ही जन्म बीत जाएँ, अवश्यमेव उसी रूप में भोगना पड़ता है। अतः दुःखों, कष्टों, विघ्न-बाधाओं, विपत्तियों आदि से बचना है, दुर्गतियों में गमन रूप अधःपतन से बचना है, तो पापकर्म से बचना अनिवार्य है।? पापकर्मों से कौन बच सकता है ? | जो आत्मा पापभीरु है, सच्चे अन्तःकरण से पापकर्मों से मुक्ति का इच्छुक है, भवभीरु है, पापकर्म करने से जिसका हृदय काँपता है, जिसे संसारवृद्धि नहीं करनी है, वही पापकर्म से अपने आप को बचा सकता है। इसीलिए भगवान १. 'पाप की सजा भारी, भा. १' (मुनि श्री अरुणविजय जी) से भाव ग्रहण, पृ. १२४
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy