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________________ * ५२४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ * रहता है, वह पूर्वोक्त पापस्थानों से विरत नहीं हो पाता। पापस्थान उसके मन-मस्तिष्क पर हावी हो जाते हैं। पूर्वसंस्कारवश अथवा पैतृकसंस्कारवश चाहे वह द्रव्य-हिंसा नहीं कर पाता हो, परन्तु राग-द्वेष, कषायादिवश भाव-हिंसा = आत्म-हिंसा तो कर ही बैठता है। पर-भावों की ओर देखने वाला अभव्य कालशौकरिक राजगृह-निवासी कालशौकरिक कसाई, जो अभव्य था और प्रतिदिन ५00 भैंसे मारने-काटने की घोर हिंसा का पापकर्म करता था। ऐसी तीव्र हिंसा के पाप के कारण उसे सप्तम नरक का अतिथि बनना पड़ा। यद्यपि कालशौकरिक कसाई प्रतिदिन भगवान महावीर के समवसरण में बैठकर उनका उपदेश सुनता था। परन्तु मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के प्रबल प्रभाव से प्रभु महावीर की वाणी का लेशमात्र भी असर उस पर नहीं होता था। भगवान महावीर ने श्रेणिक राजा को पूंणिया श्रावक की एक सामायिक खरीदने हेतु चार उपायों में से एक उपाय यह भी बताया था कि यदि कालशौकरिक पाडों का वध करना बंद कर दे तो तुम्हें सामायिक-प्राप्ति के कार्य में सफलता मिल सकती है। श्रेणिक को आशा बँधी, लेकिन वह आशा निराशा में ही परिणत हो गई, जबकि कालशौकरिक को बहुत कुछ समझाने-बुझाने, उसकी आजीविका का अन्य प्रबन्ध कर देने का आश्वासन देने एवं उससे यह पशुवध छुड़ाने हेतु उसे जबरन कुएँ में भी उतार देने के बावजूद भी वह पशु-हिंसा न छोड़ सका। कुएँ में भी कुएँ के पाल की गीली मिट्टी लेकर उससे पाड़ों की आकृति बनाकर ५00 पाड़े मारे। मानसिक हिंसा ही भाव-हिंसा है, उसी से तीव्र पापकर्म बँधे हैं, जो उसे अधमाधम अधोगति की ओर ले गए। जब तक वृत्ति से पापकर्म नहीं हटता, तब तक प्रवृत्ति से पापकर्मबन्ध से विरत होने की सम्भावना नहीं रहती। कालशौकरिक-पुत्र सुलसकुमार की हिंसादि पापों से विरति कालशौकरिक के एक पुत्र था-सुलसकुमार। उसे भी वह प्रतिदिन अपने साथ भगवान महावीर के समवसरण में ले जाता था। उसे भगवान का उपदेश बहुत रुचिकर लगता था। इस कारण उसमें अहिंसा, सत्य, अचौर्य आदि धर्म के संस्कार प्रबल होते गए। सुलस का स्वभाव अपने पिता के स्वभाव से बिलकुल उलटा था। यह स्वाभाविक है कि पिता की व्यावसायिक प्रवृत्ति को देख-देखकर पुत्र की भी उसमें प्रवृत्ति हो; लेकिन ऐसा कोई नियम नहीं है। अतः पिता के द्वारा पशुवध आदि पापकर्म करने का आदेश देने पर भी वह उसे कतई स्वीकार न कर सका। १. 'पाप की सजा भारी' से भाव ग्रहण, पृ. १७३
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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