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________________ * अविरति से पतन, विरति से उत्थान - २ ५०५ कु की सजा पाता ही है, कदाचित् यहाँ चालाकी से छूट जाए, परन्तु अगले जन्मजन्मान्तर में तो उसे सजा मिलनी ही है । माया - मृषावादी की पहचान के लक्षण माया - मृषावादी की पहचान के लिए 'उपदेशमाला' में कहा गया है - जो व्यक्ति आलसी (प्रमादी) होता है, शठ (धूर्त), कपटी, बहाना बनाने में स्वार्थवश तत्पर, अत्यन्त प्रमादी (निद्रालु) तथा स्वयं दोष- दुर्गुणों से भरा होने पर भी गुणवानों के समक्ष अपने आप को विशिष्ट गुण सम्पन्न बताने का प्रयत्न करने वाला, अपने मुँह से अपनी तारीफ करने वाले व्यक्ति को माया - मृषावादी जानना चाहिए। ऐसा व्यक्ति इन दुर्गुणों के होते हुए भी अपने आप को 'मैं सद्गुणी और सुस्थित हूँ' ऐसा मानता है। बाघ का चमड़ा ओढ़े हुए गधे के समान माया - मृषावादी एक व्यक्ति ने अपने गधे को बाघ का चमड़ा ओढ़ाकर किसानों के खेतों में चरने के लिए छोड़ दिया था। पहले तो किसान लोग उससे डरकर निकट नहीं आते थे। परन्तु एक दिन उसे रेंकते देखकर एक किसान ने उसे गधा समझकर उसका व्याघ्रचर्म हटाकर डंडों से पीटकर खदेड़ दिया । उसी तरह साधुवेष में भी कई दंभी, ढोंगी और कपटी फिरते हैं। कई बाबा तो संन्यासी के वेष में दिन में श्रद्धालु लोगों के यहाँ पहुँच जाते हैं, घर का भेद ले आते हैं, रात को वहाँ चोरी करते हैं। जैसा कि कपट क्षेपक बनकर महादम्भी घोर शिव नामक ब्राह्मण ने संन्यासी का ढोंग रचा था। ऐसे लोग और भी अनेक कुकर्म करते हैं। शराब, व्यभिचार और जुए के अड्डे भी चलाते हैं । कई संन्यासीवेश में इसी प्रकार साधुता के गुण होते हुए भी अपने आप को परमहंस, साधुशिरोमणि, भगवद्-भक्त कहते फिरते हैं। कई कलियुगी भगवान भी लोगों को अपने शब्दजाल में फँसाकर गुमराह कर देते हैं। वे अपने पापों पर पर्दा डालने के लिए भगवां वेश पहन लेते हैं । परन्तु जब इनकी कलई खुल जाती है, तब इनकी दशा अत्यन्त शोचनीय हो जाती हैं। आज से ढाई हजार वर्ष पहले तीर्थंकर महावीर प्रभु के समक्ष मंखलीपुत्र गोशालक ने भी माया - मृषावादी का नाटक किया था । गोशालक होते हुए भी कहा कि मैं गोशालक नहीं हूँ। वह तो कभी का मर चुका है। मैं तीर्थंकर भगवान हूँ । कुछ भी हो, ऐसे माया - मृषावादी की पापलीला अधिक समय तक नहीं चलती। वस्तुतः माया-मृषावादी जैसा है, उससे कई गुना अधिक अच्छा दिखने का प्रयत्न करता है। ख़राब होते हुए भी अच्छा दिखावा, आडम्बर एवं प्रदर्शन करके, लोगों की भीड़ इकट्ठी करके अच्छे दिखावे का प्रयत्न करना सरासर दम्भ है, लोकवंचना
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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