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________________ ® ५०६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ 8 है। झूठा होते हुए भी सत्यवादी हरिश्चन्द्र जैसा दिखावा करना भी माया-मृषावाद है। ऐसा दाम्भिक मानव स्वोत्कर्ष के लिए स्वार्थवश ऐसे झूठ-फरेब रचता है, जिससे घोर पापकर्म बँधता है। वह भले ही हर समय ऐसा पापकर्म नहीं कर पाता, फिर भी जनता में वह विश्वसनीय नहीं रहता। ____ माया-मषावाद से विरत होने पर व्यक्ति अपनी आत्मा के प्रति वफादार आत्म-दृष्टि-परायण और लोक-विश्वसनीय बनता है। घोर कर्मबन्ध को रोककर वह संवर का लाभ भी प्राप्त कर सकता है।' माया-मृषावाद से विरत होने के उपाय माया-मृषावाद से विरत होने के दो ही प्रमुख उपाय हैं-सरलता और सत्यता। सरलता के आचरण से माया हटेगी और सत्य के आचरण से मृषावाद, दंभ, कपटं हटेगा। सत्य का दृढ़ता से पालन करने के लिए सत्यवादी महापुरुषों के जीवन-चरित्र को पढ़ना, मनन करना तथा तत्त्वज्ञानी साधु-संतों का सत्संग एवं सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिए। दृष्टि सम्यक् होने पर अनुभवज्ञान भी सम्यक् होगा और सत्य-सिद्धान्त के आचरण की ओर कदम बढ़ेगा। सरलता का अर्थ है-शठवृत्ति, कपटाचरण या दम्भ-दिखावे का त्याग करना। मन से सोचने, वचन से बोलने और काया से प्रवृत्ति करने में एकरूपता लाने की भरसक कोशिश करनी चाहिए। जो भी वचन मुँह से निकाले जाएँ, उन्हें पालन करने का प्रयत्न करना चाहिए। जैसा हो वैसा ही सरल भाव से दिखाना-कहना चाहिए। ऐसा करने से माया और मृषावाद दोनों की वृत्ति शान्त हो जाएगी। माया-मृषावाद से विरत . होने का यही सुगम राजमार्ग है। अठारहवाँ पापस्थान : मिथ्यादर्शनशल्य : एक चिन्तन मिथ्यादर्शन का अर्थ और स्वरूप अन्तिम अठारहवाँ पापस्थान मिथ्यादर्शनशल्य है। मिथ्यादर्शन का अर्थ हैविपरीत दर्शन। पदार्थ के स्वरूप से जो विपरीतभाव है, वह मिथ्याभाव है।२ १. (क) अलसो सढोऽवलित्तो आलंबण-तप्परो अइपमाई। एवं ठिओ वि मन्नई अप्पाणं सुढिओ मि ति॥ जे विया पाउडेणं माया-मोसेहिं खाइमुद्धजण। तिग्गाम-मज्झवासी सो सोअइ कवड-खवगुव्व॥ -धर्मदासगणि रचित उपदेशमाला (ख) “पाप की सजा भारी, भा. २' से भाव ग्रहण, पृ. १०३० २. विपरीतभावः मिथ्याभावः। -स्थानांग टीका
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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