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________________ ४७४ कर्मविज्ञान : भाग ६ पुरुषेंच्छा), (१२) पुरुषवेद ( पुरुष को स्त्री की इच्छा ), (१३) नपुंसकवेद ( स्त्री-पुरुष दोनों की इच्छा ), (१४) मिथ्यात्व ( मोहवश तत्त्वार्थ पर श्रद्धा न होना, विपरीत श्रद्धा होना) । ' वास्तव में पर-पदार्थों या इन विभावों के प्रति जब मनुष्य तीव्र राग - मोह, ममत्व या मूर्च्छापूर्वक बार-बार दृष्टि दौड़ाता है, तभी वह परिग्रह नामक पापस्थान (पापकर्मबन्ध का कारण) होता है । अतः परिग्रह नामक पापस्थान से बचने के लिए आत्मा का चिन्तन-मनन, आत्म-भावों के प्रति अभिमुखता तथा आत्म-स्वरूप में रमणता का अभ्यास करना चाहिए । बाह्य परिग्रह का त्याग संतोष, वैराग्य, वस्तुस्वरूप के ज्ञान, तप, तितिक्षा, समभाव आदि के अभ्यास से सिद्ध होगा। तभी जीवन में अप्रमत्तता, आत्म- जागृति तथा परभाव-विरति आएगी और भगवत्कथनानुसार व्यक्ति की चेतना का ऊर्ध्वारोहण होगा । इनसे आगे के पापस्थानों के विषय में हम अगले निबन्ध में प्रकाश डालेंगे। मूल वस्तु यही है कि पापस्थानों में प्रवृत्ति से जीव कर्मों से भारी होकर अधोगतियों में गिरता है और इनसे निवृत्ति से जीव कर्मों से रिक्त - हलका होकर या तो मोक्ष की ओर ऊर्ध्वगमन करता है या फिर मनुष्यगति या देवगति में जाता है, जहाँ उसे आत्मा के उत्थान के निमित्त मिलने की सम्भावनाएँ हैं और यह भी निश्चित है कि वह पापस्थानों में प्रवृत्ति भी तभी करता है, जब उसकी दृष्टि अधोमुखी होती है, अर्थात् विभावों से युक्त होकर पर - भावों की ओर देखता है, उन्हीं में रागादियुक्त होता है और उनसे विरति भी तभी कर पाता है, जब उसकी दृष्टि ऊर्ध्वमुखी होती है, पर-भावों-विभावों से हटकर स्वभाव - आत्म-भाव की ओर देखता है। १. (क) कोहो माणो माया लोभो, पेज्जं तहेव दोसो य । मिच्छत्त-वेद-अरइ-रइ हासो सोगो भय दुगंछा ॥ (ख) मिच्छत्त-वेद-राग हासादिभया होंति छद्दोसा। चारि तह कसाया, चोहसं अभिंतरा गंथा ॥ - बृहत्कल्प भाष्य, गा. ८३१ - प्रतिक्रमणत्रयी, पृ. १७५
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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