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अविरति सेपतन, विरति सेउत्थान-२
पिछले प्रकरण में हिंसा आदि पाँच पापस्थानों में प्रवृत्त होने से कैसे अधःपतन की ओर जाता है तथा इन्हीं पाँच पापस्थानों से विरत (निवृत्त) होने से कैसे ऊर्ध्वारोहण करता है? इसे हमने विभिन्न. युक्तियों, आगमोक्तियों और प्रमाणों से सिद्ध किया है और यह भी सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि जीव जब राग-द्वेष, कषाय आदि. विभावों से युक्त होकर पर-भावों की ओर देखता है, उनमें रमण करता है, उन्हीं में (सांसारिक) सुख मानता है, आसक्तिपूर्वक उनमें प्रवृत्त होता है, तब वह इन पापस्थानों में प्रवृत्त होकर नानाविध अशुभ कर्मों का बन्ध कर लेता है
और जब वह राग-द्वेषादि विभावों से रहित होकर सम्यग्दृष्टिपूर्वक उनसे विरत होता है, आत्म-भावों में रत होता है, तब वह आत्मा कर्ममुक्ति की ओर प्रस्थान करता है, ऊर्धारोहण करता है और स्व-भाव में रमण करता है, स्व-रूप में स्थित होने का पुरुषार्थ करता है। आगम में कहा गया है-"जे पावे कम्मे कडे, कज्जइ, कज्जिस्सई से दुहे।" जो पापकर्म किया है, करता है या करेगा, वही दुःखरूप है। अतः पापकर्म से बचना प्रत्येक मुमुक्षु का कर्तव्य है।
इसी सन्दर्भ में अब हम आगे के अवशिष्ट तेरह पापस्थानों से अविरति और विरति के सम्बन्ध में चिन्तन प्रस्तुत करेंगे।
चार कषायरूप चार पापस्थान क्या, क्यों और कैसे ? - इस अनादि-अनन्त संसार में मूलभूत द्रव्य दो हैं-जीव और अजीव। जीव (आत्मा) ज्ञानादि गुणों से युक्त चेतन द्रव्य है, जबकि अजीव ज्ञान-दर्शनादि रहित वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शात्मक जड़ (अचेतन) द्रव्य है। इनमें एक-दूसरे का परस्पर कोई तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है। जब आत्मा अपने ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि गुणों को छोड़कर अर्थात् इन गुणों को भूलकर, उपेक्षा कर या इन गुणों के प्रति बेखबर होकर बाह्य जड़ (पदार्थों) अथवा अपने से भिन्न सजीव प्राणियों के प्रति अधिक ध्यान देता है अथवा इष्ट-अनिष्ट पदार्थों का संयोग होने पर राग-द्वेष करता है, इष्ट पदार्थों का वियोग होने पर मन ही मन चिन्तित-व्यथित होता है, तभी या तो