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________________ * अविरति से पतन, विरति से उत्थान-१ * ४७३ 8 त्याग कर देता था। भामाशाह झगडूशाह, खेमाशाह सम्प्रति राजा आदि श्रावकों ने समय आने पर अपने देश के लिए व धर्मसंघ की सेवा के लिए अपनी सम्पत्ति, अन्न आदि पदार्थों का त्याग कर दिया था। श्रावक मुख्यतः बाह्य परिग्रह की मर्यादा करता है श्रावक के लिए भगवान ने १५ प्रकार के अति हिंसादिकारक व्यवसायों (कर्मादानों-खरकर्मों) का सर्वथा त्याग करने का तथा ९ प्रकार के मुख्य बाह्य परिग्रहों की मर्यादा करने का विधान किया है। वे नौ प्रकार के बाह्य परिग्रह ये हैं(१) क्षेत्र (खेत या खुली भूमि), (२) वास्तु (मकान, दुकान आदि), (३) हिरण्य (चाँदी के सिक्के, आभूषण आदि), (४) स्वर्ण (सोने के सिक्के, आभूषण आदि), (५) धन (हीरे-पन्ने, मोती, जवारहरात आदि), (६) धान्य (सभी प्रकार के अन्न आदि खाद्य पदार्थ), (७) द्विपद (दो पैर वाले मनुष्य, पक्षी आदि), (८) चतुष्पद (गाय, भैंस आदि चौपाये जानवर), और (९) कुप्प (यान, वाहन, वस्त्र, शयनादि की सामग्री तथा बर्तन आदि)। यों तो पदार्थ अगणित हैं, परिग्रह के भेद भी अगणित हो सकते हैं, परन्तु इन्हें ९ भेदों में परिगणित कर दिया है। बाह्य पदार्थ परिग्रहरूप कब ? वास्तव में देखा जाए तो सजीव या निर्जीव बाह्य परिग्रहों से पापकर्म का बन्ध तभी होता है, जब व्यक्ति के अन्तःकरण में मन-वचन-काया से आभ्यन्तर परिग्रह का ग्रहण, संग्रहण, प्रग्रहण, परिग्रहण, आग्रहण, अतिग्रहण, दुर्गहण या दुराग्रहण हो। इसीलिए 'बृहत्कल्पसूत्र' में आभ्यन्तर परिग्रह १४ प्रकार का बताया गया है(१) हास्य, (२) रति (सांसारिक पदार्थों में रुचि), (३) अंरति (धर्मकार्योंसंवर-निर्जरात्मक कार्यों में अरुचि), (४) भय (डर, भीति, सप्तविधभय), (५) शोक (सजीव-निर्जीव परिगृहीत पदार्थ के वियोग या नुकसान से चिन्ता, शोक, विलाप, तनाव आदि), (६) जुगुप्सा (अनिष्ट पदार्थ के योग से घृणा, अरुचि, द्वेष), (७) क्रोध (रोष, कोप, गुस्सा, आवेश), (८) ध्यान (अहंकार, मद, दर्प, अभिमान), (९) माया (छलकपट, ठगी, कुटिलता, वंचना), (१०) लोभ (लालच, तृष्णा, लालसा, लिप्सा, गृद्धि, आसक्ति), (११) स्त्रीवेद (स्त्री को १. (क) देखें--'पाप की सजा भारी, भा. १' में पेथड़शाह के द्वारा परिग्रह मर्यादा का वृत्तान्त . (ख) देखें-'जैन वीरों की गाथाएँ' में खेमाशाह आदि का वृत्तान्त २. (क) खेत्तं वत्थु धणधन्न-संचओ मित्तवराइ-संजोगो। जाण-सयणासणाणि य दासीदासं च कुव्वयं च॥ -बृहत्कल्प भाष्य ८२६ (ख) धण-धन्न-खित्त-वत्थु-कप्प-सुवन्नेअ कुविअ-परिमाणे। दुपए चउप्पयम्मि पडिक्कम्मे देसिअं सव्वं॥ -वंदित्तु प्रतिक्रमण (श्रावकाचारसूत्र)
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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