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________________ ॐ ४६८ * कर्मविज्ञान : भाग ६ उन पदार्थों को ग्रहण करते, सुरक्षित रखते और उनका उपभोग करते देखता है, तो वह अपनी आत्मा की ओर से दृष्टि हटाकर उनकी ओर दृष्टि गड़ाता है, उनको पाने और उपभोग करने की तथा उन पर ममता और आसंक्तिपूर्वक रखने की ललक उठती है। इस प्रकार वह अहर्निश इसी उधेड़बुन में लगा रहता है। वह नहीं जानता या जानने पर भी अथवा पदार्थों पर मूर्छित होने का परिणाम जानते हुए भी वह पूर्वसंस्कारवश उन इन्द्रिय-विषयों, धन, साधन आदि निर्जीव पर-पदार्थों अथवा सजीव सुन्दर नारी, बालक, दास-दासी आदि पदार्थों को अपना बनाने या ममत्वपूर्वक ग्रहण करने का प्रयास करता है। पर-भावों में आसक्तिपूर्वक झुकाव ही परिग्रह का कारण है इसका एक कारण यह है कि आज का मानव भौतिक विकास को अपने जीवन का परम लक्ष्य मान रहा है। वह सम्पत्ति और सत्ता के लिए अपने अमूल्य जीवन को दाव पर लगा रहा है। अपनी भौतिक और भोगप्रधान आकांक्षा की पूर्ति के लिए अपने आध्यात्मिक सद्गुणों को तिलांजलि दे रहा है। यही कारण है परभावों की ओर अत्यधिक झुकाव के कारण परिग्रह आज पिशाच बनकर मनुष्य को विवधि प्रकार के नाच नचा रहा है, वह समाज में विषमता पैदा करता है। परिग्रहवृत्ति के कारण सभी पाप किये जाते हैं .., 'प्रश्नव्याकरणसूत्र' में कहा गया है कि परिग्रह के लिए लोग हिंसा करते हैं, झूठ बोलते हैं, ठगी और धोखेबाजी करते, विश्वासघात और अपमान, चोरी, तस्करी और डकैती करते हैं। ___ परिग्रह के लिए अपने भाइयों का शत्रु बनकर कोणिक नृप ने महाशिलाकण्टक महायुद्ध छेड़ दिया। परिग्रह के कारण माता, पिता, भाई, बहन, पुत्र, पुत्री तक से भी सम्बन्ध कटु हो गए, यहाँ तक कि वे एक-दूसरे के प्राणों के ग्राहक बन गए। इसीलिए परिग्रह को पाप का मूल कहा गया है। अतिपरिग्रही सुखशान्तिपूर्वक जीवन-यात्रा नहीं कर पाता ____ मनुष्य अपनी आत्मदृष्टि से विमुख होकर पर-पदार्थों पर ध्यान देता है, तब असंतोष और अशान्ति का विषचक्र उसके दिलदिमाग पर हावी हो जाता है। परिग्रह एक ऐसा जहरीला कीटाणु है, जो धर्मरूपी कल्पवृक्ष को तथा सद्गुणरूपी फलों को नष्ट कर देता है। वह किसी को शान्ति, संतोष और आनन्द के साथ जीवन-यात्रा नहीं करने देता।३ १. 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' से भावांश ग्रहण २. प्रश्नव्याकरणसूत्र ३. 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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