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________________ ® अविरति से पतन, विरति से उत्थान-१ ॐ ४६९ 8 परिग्रहवृत्ति जिस पर सवार हो जाती है, वह धनवृद्धि, भोगोपभोग साधनों की वृद्धि अथवा राज्यवृद्धि के लिए दूसरे पर आक्रमण करता है, येन-केनप्रकारेण छीनाझपटी करके धन, राज्य या भोगसाधनों को अपने कब्जे में करता है। परिग्रही मानव अपनी तिजोरी में पड़े हुए धन को देख-देखकर संतुष्ट होता है, परन्तु उनका वह सदैव उपभोग कर सके, ऐसा बहुत ही कम सम्भव होता है। तीव्र परिग्रह-पापस्थान से नरकगामिता अवश्यम्भावी मम्मण सेठ के पास अपार सम्पत्ति थी। उसने सारी सम्पत्ति को हीरे, पन्ने, माणिक आदि रत्नों में बदलकर एक बैल को उनसे सुसज्जित किया। एक बैल को सुसज्जित देखकर उसे वैसा ही रत्नजटित बैल बनाने की हूक उठी और वह रात-दिन उसी चेष्टा में निमग्न रहने लगा। राजा श्रेणिक ने उसकी परिग्रहवृत्ति देखी तो उन्हें उसकी पर-पदार्थासक्ति और आत्मा के प्रति विमुखता देख-देखकर तरस आया। वह न तो अपने पुत्रादि को सुख से खाने-पीने देता था और न ही स्वयं सुख से खाता-पीता था। यह उसकी त्यागवृत्ति नहीं, कृपणता और धनासक्ति थी। इसी परिग्रहवृत्ति-पर-पदार्थासक्ति ने उसे अधोगति में पहुँचा दिया। इसीलिए महापरिग्रह को नरकायुबन्ध का कारण 'तत्त्वार्थसूत्र' में बताया गया है। चक्रवर्ती भी अगर गृहत्याग करके पूर्ण चारित्रं अंगीकार न करे तो उसे नरक में जाना पड़ता है। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती भोगों और वैभव के प्रति तीव्र मूर्छा के कारण सातवीं नरक में गया।' · पर-पदार्थों के प्रति परिग्रहवृत्ति होने से दुर्गतिगामी बनना पड़ा मगध देश के कुचिकर्ण नामक ग्राम-प्रमुख के पास एक लाख गायें थीं। वह अजीर्ण, अपच आदि रोग होने पर भी छककर गायों के दूध-घी का ही भोजन करता था। उसके हितैषियों के मना करने पर वह कहता-मेरी गायें हैं, मैं दूध-घी का भोजन करना नहीं छोडूंगा। फलतः उसके सारे शरीर में रसयुक्त अजीर्ण हो गया। अत्यन्त पीड़ा से ग्रस्त होने पर भी 'हाय ! मेरी गायों से मैं बिछुड़ जाऊँगा' इस प्रकार गाढ़ आसक्ति के कारण वह मरकर तिर्यञ्च पशु बना। अचलपुर के धान्य व्यापारी तिलक सेठ ने जब ज्योतिषी से यह सुना कि अगले वर्ष दुष्काल पड़ने वाला है, तो उसने धनार्जन करने के तीव्र लोभ के कारण सभी जनपदों से लाखों मन अनाज मँगवाकर अपने गोदाम भर लिये। फिर सोचने लगा कि "दुष्काल पड़ने से अनाज के भाव बढ़ेंगे तो मैं अपार सम्पत्ति कमा लूँगा।" १. (क) 'उपदेशप्रसाद' से भाव ग्रहण (ख) बह्वारम्भ-परिग्रहत्वं च नरकस्यायुषः। (ग) देखें-उत्तराध्ययन के चित्तसम्भूतीय अध्ययन १३ में -तत्त्वार्थसूत्र, अ. ६, सू. १६
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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