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________________ ॐ अविरति से पतन, विरति से उत्थान-१ ॐ ४६७ * लिए विकारी दृष्टि से देखना बंद हो गया। अपनी आँखों से जब व्यक्ति दूसरों को रागभाव से देखता है, तभी अब्रह्मचर्य का पाप उत्पन्न होता है। विजय सेठ और विजया सेठानी में से एक ने अज्ञातरूप से कष्ण पक्ष में और एक ने शुक्ल पक्ष में ब्रह्मचर्य-पालन की प्रतिज्ञा ले ली थी। विवाह के बाद रहस्य खुला तो दोनों आजीवन ब्रह्मचर्यपूर्वक रहे। अब्रह्मचर्य से आजीवन विरत होकर उन्होंने सुगति प्राप्त की, भविष्य में मोक्षगामी होंगे। वे ब्रह्म में यानी अपनी शुद्ध आत्मा को देखने में लगे, एक-दूसरे को विकारी दृष्टि से देखना बंद किया तभी ब्रह्मचर्यनिष्ठ हो सके। स्थूलिभद्र मुनि जिस रूपकोशा गणिका के यहाँ बारह वर्ष तक रहकर अब्रह्मचर्यमग्न रहे। पूर्ण ब्रह्मचारी मुनि बनकर ब्रह्मचर्य-साधना में परिपक्व होकर वे गुरु-आज्ञा से उसी की रंगशाला में चातुर्मास करने आए। चारों ओर विषय-वासना-उत्तेजक मादक एवं मोहक वातावरण था, रूपकोशा ने भी उन्हें अब्रह्मचर्यगर्त में डालने और आकर्षित करने के लिए भरसक प्रयत्न किये, फिर भी स्थूलिभद्र ब्रह्मचर्य में अडोल और अविचल रहे। यह था अब्रह्मचर्य से विरत होकर ब्रह्मचर्य-साधना में परिपक्व होने से चेतना के ऊर्ध्वारोहण के ज्वलन्त उदाहरण ! साधक भी सब्रह्मचर्य नामक पापस्थान से विरत होकर अध्यात्म विकास में ऊर्ध्वारोहण कर सकता है। पंचम परिग्रह नामक पापस्थान : क्या और किस कारण से? .. परिग्रह नामक पापस्थान का चौर्यकर्म नामक पापस्थान से गहरा सम्बन्ध है। परिग्रहवृद्धि के लिए मनुष्य चोरी करता है, अपहरण, तस्करी, कालाबाजारी, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, खाद्य वस्तु में मिलावट आदि करता है। इसलिए परिग्रह नामक पापकर्म भी पर-पदार्थों की ओर दृष्टि होने से तथा अपनी आत्मा की ओर से आँखें मूंद लेने पर ही होती है। ___पर-पदार्थों पर मूर्छा आत्मदृष्टि से विमुखता . संसार में उपभोग्य पदार्थ सीमित हैं, जबकि मनुष्य की इच्छाएँ, आकांक्षाएँ और फिर आवश्यकताएँ आकाश की तरह असीम हैं-अनन्त हैं। मनुष्य जब विविध पर-पदार्थों की ओर दृष्टिपात करता है और अपने सजातीय मानवों को . १. (क) उत्तरा., अ. २२ (ख) देखें-गांधी जी की आत्मकथा : सत्य के प्रसंग (ग) 'सौराष्ट्र की रसधार' (झवेरचंद मेघाणी) से भाव ग्रहण (घ) उपदेश प्रासाद में देखें-विजय सेठ-विजया सेठानी का वृत्तान्त
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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