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________________ ॐ ४६६ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ * एक अब्रह्मचर्य के सेवन से अन्य अनेक पाप अब्रह्म-सेवन में स्त्रीपुरुष-संस्पर्श के समय योनि यंत्र में समुत्पन्न जीवों की हिंसा तो है ही, किन्तु इसके कारण असत्य, चोरी (अपहरण), बलात्कार, निन्दा, पैशुन्य, मिथ्यात्व आदि अन्य पाप भी होते हैं। 'प्रश्नव्याकरणसूत्र' में कहा गया है“एक ब्रह्मचर्यव्रत के भंग होने पर अन्य सभी व्रत भंग हो जाते हैं। जैसे-पर्वत से गिरने पर वस्तु के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं, वैसी ही स्थिति ब्रह्मचर्य-भंग के होने पर अन्य व्रतों की होती है।"१ . अब्रह्मचर्य से विरत होकर आध्यात्मिक विकास में ऊर्ध्वारोहण .. . इसलिए आध्यात्मिक ऊर्ध्वारोहण के लिए, संवर और निर्जरा द्वारा सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष-प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्य सुरक्षा अनिवार्य है। भगवान अरिष्टनेमि ने अपने विवाह के निमित्त से बारातियों को दिये जाने . वाले माँस भोजन के लिए होने वाली पशु-हिंसा को रोकने के लिए विवाह ही नहीं किया, वापस लौट आए। इस प्रकार अब्रह्मचर्य प्रवेशरूपं विवाह में हिंसा आदि के : निरोध के लिए अब्रह्मचर्य निरोधरूप संवर और ब्रह्मचर्यरूप निर्जरा से घातिकर्मक्षय करके नेमिनाथ ने आत्मा का ऊर्ध्वारोहण किया, सर्वकर्मविमुक्त हुए। पेथड़शाह दम्पति ने भरी जवानी में आजीवन ब्रह्मचर्य-पालन की प्रतिज्ञा ली थी। इसी तरह अब्रह्मचर्य से विरत होने के लिए ब्रह्मचर्य से पतन के अवसर आते ही तुरन्त सावधान होकर अपने आप को वहाँ से महात्मा गांधी जी जब पहले-पहल साधारण व्यक्ति के रूप में अफ्रीका (विदेश) गये थे, तो उनकी माता पुतलीबाई ने उन्हें जैन मुनि बेचर जी स्वामी से तीन नियमों में एक नियम पर-स्त्री-सेवन नहीं करने का भी दिलाया था। इस नियम की तीन बार कसौटी हुई और तीनों ही बार उन्होंने तुरन्त सावधान होकर अब्रह्मचर्य के पाप में गिरने से अपने को बचा लिया। सौराष्ट्र के नौजवान राजकुमार रा'दयास को एक दिन वायु-सेवन के लिए जाते समय पनघट से पानी का कलश लेकर आती हुई एक सर्वांग सुन्दरी तरुणी पर दृष्टि पड़ी, वे उस पर एक बार तो मोहित हो गए, परन्तु तत्काल सँभल गए और सीधे महल में आकर अपनी माता से कहा-"मेरी आँखों में मिर्च आँज दो, इन्होंने आज एक तरुणी को विकारी दृष्टि से देखा है।" माँ के मना करने पर उन्होंने स्वयं अपनी आँखों में मिर्च डाल ली। थोड़ी पीड़ा अवश्य हुई, परन्तु फिर सदा के १. (क) प्रश्नव्याकरण २/४ (ख) योनियंत्र-समुत्पन्नाः सुसूक्ष्मा जन्तुराशयः। पीड्यमानाविपद्यन्ते यत्र तन्मैथुनं त्यजेत्।। -योगशास्त्र, प्र.२
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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