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+ अविरति से पतन, विरति से उत्थान - १ ४६५
कामभोगादिवासना (राग = आसक्ति) में मन-वचन-काया से प्रवृत्त होना ब्रह्मचर्य (मैथुन - विरमण-व्रत) का अतिक्रमण है = अब्रह्मचर्य है।'
मैथुन सेवनरूप अब्रह्मचर्य के आठ अंग
एक आचार्य ने मैथुन के आठ अंगों में रमण करने को अब्रह्मचर्य बताते हुए कहा है-स्मरण (पूर्वभुक्तभोगों का या स्त्री आदि का ), कीर्त्तन, केलि (स्त्री आदि के साथ क्रीड़ा), प्रेक्षण (स्त्री आदि के अंगोपांगों को टकटकी लगाकर विकारदृष्टि से देखना ), गुह्य - भाषण (स्त्री आदि के साथ एकान्त में वार्तालाप या गुप्त संकेत), संकल्प (मन ही मन उक्त रमणी आदि को पाने का संकल्प करना या बार-बार उसके विषय में चिन्तन करना), अध्यवसाय ( उक्त स्त्री आदि के साथ सहवास का दुर्भाव करना) तथा वासनापूर्ति (मैथुन - प्रवृत्ति) करना; मनीषिगण मैथुन के ये आठ अंग बताते हैं । ये सभी अंग पर भावों की ओर देखने से तथा स्व-भाव की ओर उपेक्षा से उत्पन्न होते हैं । २
अब्रह्मचर्य का फलितार्थ
परन्तु कुछ आचार्य कहते हैं - अब्रह्मचर्य का अर्थ वीर्यरक्षण न करना, वीर्यपात करना है । इन सबसे ऊपर उठकर तीर्थंकरों ने तथा वैदिक मूर्धन्य मनीषियों ने ब्रह्मचर्य का अर्थ आत्मरमण किया है, इसके विपरीत अब्रह्मचर्य का अर्थ फलित होता है - आत्म-विमुखता, आत्म- बाह्य कुत्सित विचारों, विकारों, वासनाओं, इन्द्रिय-विषयों, वाचिक और कायिक विकारों में राग, मोह, आसक्तिपूर्वक प्रवृत्त होना । मतलब यह है कि ब्रह्मचर्य की जो नौ गुप्तियाँ बताई हैं, ३ उनका -बूझकर रागादिवश अकारण ही भंग करना अब्रह्मचर्य का आचरण है। ‘सर्वार्थसिद्धि' के अनुसार--मोह का उदय होने पर रागपरिणाम से स्त्री-पुरुष में जो परस्पर संस्पर्श (सहवास) की इच्छा होती है, वह मिथुन है तथा तज्जनित चेष्टा या क्रिया मैथुन है । ४
जान
१. सद्दा रूव - रसा-गंधा- फासाणं पवियारणा । मेस विरमणे सत्ते अइक्कमे ॥
२. स्मरणं कीर्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्यभाषणम् । संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिष्पत्तिरेव च । . एतन्मैथुनमष्टांगं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥
- पाक्षिकसूत्र
ब्रह्मचर्य की ९ गुप्तियाँ - (१) विविक्त शय्यासन, (२) स्त्रीकथापरिहार, (३) निषेधानुपवेशन, . (४.) स्त्री - अंगोपांग अदर्शन, (५) कुड्यान्तर - शब्दश्रवणादिवर्जन, (६) पूर्वभोग - स्मरणवर्जन, (७) प्रणीतभोजनत्याग, (८) अतिमात्रभोजनत्याग, (९) विभूषा वर्जन ।
४. सर्वार्थसिद्धि ७/१६