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ॐ ४६४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ *
उद्विग्न, क्रोधादि कषायों से उत्तप्त, कमजोर मन वाले होते हैं। बौद्धिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यरत व्यक्ति प्रखर बुद्धि, तीव्र स्मृति, निर्णय-निरीक्षण-परीक्षण शक्ति के धनी होते हैं, जबकि अब्रह्मचारी की बुद्धि, स्मृति, निर्णय-शक्ति, बौद्धिकक्षमता प्रायः अत्यन्त मन्द होती है। सामाजिक दृष्टि से भी ब्रह्मचर्य-पालक के लिये हेमचन्द्राचार्य का कथन है-"चारित्रधर्म के प्राणभूत परब्रह्म-परमात्मपद की प्राप्ति के एकमात्र कारणभूत ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला' सुर, असुर, राजा आदि संसार में पूजित आत्माओं द्वारा भी पूजा जाता है। इसके विपरीत अब्रह्मचर्यरत कामुक पुरुष इहलोक में सरकार आदि द्वारा दण्डित होता है, परलोक में भी दुर्गलि पाकर भयंकर यातनाएँ पाता है। आध्यात्मिक दृष्टि से भी अब्रह्म-सेवी की आत्मा कषाय-कलुषित, मोह-मूढ़ बन जाती है। ब्रह्मचारी को दुष्कर ब्रह्मचर्य-पालन के लिए देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर आदि भी नमस्कार करते हैं। अब्रह्मचारी के पास कोई देव नहीं फटकते। मंत्र-तंत्र सिद्धि नहीं होती। पाप ही पाप बढ़ता जाता है। ययाती, चण्डप्रद्योत, मणिरथ राजा आदि कई अब्रह्मचर्य में डूबे हुए लोग नरकगामी बने। ब्रह्मचर्य एक : लक्षण अनेक - अब्रह्मचर्य का स्थूल अर्थ मैथुन-सेवन करना, कामवासना-सेवन करना, वेदमोहनीयवश स्त्री-पुरुष-नपुंसक के परस्पर मैथुन-सेवन की इच्छा करना है। इससे आगे बढ़कर कुछ आचार्यों ने पाँचों इन्द्रियों के विषयों में रागादिवश प्रवृत्त होने को अब्रह्मचर्य माना है। जैसे कि 'पाक्षिकसत्र' में मैथुन-विरमण व्रत के अतिक्रमण के सन्दर्भ में कहा है-(मधुरगीतादि के) शब्द, (स्त्री आदि के) मनोहररूप, (मीठेमनोज्ञ) रस, (मनोज्ञ-मनभावन) सुगन्ध और (स्त्री आदि के कोमल अंगों आदि का, गुदगुदी शय्या आदि का) स्पर्श, इन पाँचों ही विषयों (२३ भेद सहित) में
१. (क) चिरायुषः सुसंस्थाना दृढ़-संहनना नराः।
तेजस्विनो महावीर्या भवेयुर्ब्रह्मचर्यतः॥ . (ख) प्राणभूतं चारित्रस्य परब्रह्मैकधारणं। .. समाचरन् ब्रह्मचर्यं पूजितैरपि पूज्यते॥
-योगशास्त्र (आचार्य हेमचन्द्र) २. (क) देखें-अब्रह्मचर्य के महादोष
कम्पः स्वेदः श्रमो मूर्छा, भ्रमिग्लानिर्बलक्षयः। राजयक्ष्मादिरोगाश्च भवेयुमैथुनोत्थिताः।। , षण्ढत्वमिन्द्रियच्छेदं वीक्ष्याब्रह्मफलं सुधीः॥
-योगशास्त्र, प्र. २ (ख) देव-दाणव-गंधव्वा जक्ख-रक्खस-किन्नरा। . बंभयारिं नमसंति, दुक्करं जे करंति तं। :
.. -उत्तरा. (ग) देखें- जैनकथाकोष' (मुनि छत्रमल जी) में इनकी कथाएँ