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8 अविरति से पतन, विरति से उत्थान-१ 8 ४६३ ®
वह अधर्म का, समस्त पापों का मूल है, बड़े-बड़े दोषों का उत्पत्ति-स्थान है, इसलिए निर्ग्रन्थ मुनिजन इसका त्याग करते हैं। संयमघातक दोषों का त्याग करने वाले मुनिजन दुनियाँ में रहते हुए भी महाभयंकर, प्रमादवर्द्धक, दुःखवर्द्धक अब्रह्मचर्य का आचरण नहीं करते। ___ इसके अतिरिक्त शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, सामाजिक एवं राजनैतिक सभी दृष्टियों से अब्रह्मचर्य हानिकारक है। यही कारण है कि निर्ग्रन्थ श्रमण
अब्रह्मचर्य का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव चारों प्रकार से दिव्य, मानुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी अब्रह्मचर्य का सर्वथा त्याग (प्रत्याख्यान) करते हैं। द्रव्य से सजीव-निर्जीव सभी रूपों के (आसक्तिपूर्वक प्रेक्षण) प्रेक्षण का तथा रूप के सहकारी रस, गन्ध और स्पर्श का. भी (राग-द्वेष) आसक्ति का त्याग, क्षेत्र सेऊर्ध्वलोक, अधोलोक या तिर्यक्लोक के सभी क्षेत्रों में, काल से-दिन या रात्रि में, भाव से माया-लोभरूप राग से तथा क्रोध-मानरूप द्वेष से भी मन-वचन-काया से, कृत-कारित-अनुमोदितरूप त्रिकरण से मैथुन (अब्रह्मचर्य) का वे त्याग करते हैं।२
. ब्रह्मचर्य से सभी प्रकार से लाभ ब्रह्मचर्य-पालन से शारीरिक लाभ बताते हुए ‘योगशास्त्र' में कहा गया हैब्रह्मचर्य के पालन से मनुष्य दीर्घायु, स्वस्थ, शुभ (सुदृढ़) संस्थान (शरीर के सौष्ठव) वाले तथा सुदृढ़ संहनन (मजबूत हड्डियों) वाले (सुडौल शरीर वाले), तेजस्वी (कान्तिमान), महापराक्रमी (शक्तिशाली, महावीर) होते हैं। इसके विपरीत अब्रह्मचर्यरत व्यक्ति अल्पायु, अनेक भयंकर रोगों से ग्रस्त, ढीले-ढाले या दुबले-पतले अथवा स्थूल शरीर वाले, कमजोर हड्डियों वाले, फीके चेहरे वाले, तेजोहीन, अशक्त एवं निर्वीर्य होते हैं। मानसिक दृष्टि से ब्रह्मचर्य-पालक मानसिक एकाग्रता, मनोबल एवं मजबूत मन वाले होते हैं, जबकि अब्रह्मचर्यरत व्यग्र,
१. मूलमेयमहम्मस्स महादोस-समुस्सयं।
तम्हा मेहुण-संसग्गं, निग्गंथा वज्जयंति णं॥१६॥ अबंभचरियं घोरं पमायं दुरहिट्ठियं।
नाऽयरंति मुणी लोए, भेयाययण वज्जिणो॥१५॥ -दशवैकालिक अ. ६, गा. १६, १५ २. (क) सव्वं भंते ! मेहुणं पच्चखामि, से दिव्वं वा माणुसं वा तिरिक्खजोणिों वा। से - मेहुणे चउव्विहे पण्णते, तं.-दव्वओ खित्तओ कालओ, भावओ। दव्वओ णं मेहूणे
रूवेसु रूवसहगएसु वा। खित्तओ णं मेहूणे-उड्ढलोए वा अहोलोए वा, तिरिअलोए वा। - कालओ णं मेहूणे-दिआ वा राओ वा। भावओ णं मेहूणे-रागेण वा दोसेण वा।
. -पाक्षिकसूत्र (ख) पंचहिं कामगुणेहिं सद्देणं रूवेणं रसेणं गंधेणं फासेणं। -श्रमणसूत्र (प्रतिक्रमण आवश्यक)