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ॐ ४६२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ 8
आदि विकारों में, यानी पर-धर्म में रमण करने के कारण। आत्मा (जीव) में अब्रह्मचर्य नामक पापस्थान भी अब्रह्म = पर-धर्म अर्थात् विभावों-पर-भावों आदि विकारों में चर्या = रमण करने से उत्पन्न होता है। 'भगवद्गीता' भी इसी तथ्य की ओर इंगित करती है-“स्व-धर्म (आत्म-धर्म = आत्म-स्वभाव) में निधन (मरण) भी श्रेयस्कर है, किन्तु पर-धर्म (पर-भावों = विभावों) में रमण करना भयावह है. खतरे से खाली नहीं है। वह पापकर्मों का बन्धकारक होकर अधोगति-दुर्गति में ले जाने वाला है।" ब्रह्मचर्य आत्मा का स्वभाव है
जीव (आत्मा) अनन्तकाल से मोहकर्मवश अपने शुद्ध-स्वरूप को भूलकर परभावों या विभावों (राग, द्वेष, मोह, कषाय, नोकषांय आदि विकारों) में बार-बार जाता है, जो उसका निज स्व-भाव नहीं है, निज-गुण नहीं है, स्व-धर्म नहीं है, उसे वह अनादिकालिक कुसंस्कारवश स्व-भाव, स्व-धर्म, स्व-गुण मान बैठा है। अब्रह्मचर्य उसका स्व-भाव या स्व-धर्म नहीं है, किन्तु वह ब्रह्मचर्य = आत्म-भाव में विचरण = रमण करना भूलकर घोर प्रमादवश विभावों-भोग-वासनाओं, विकारों और पर-पदार्थों को रमणीय मान बैठता है, आत्मा को पापकर्म के बन्धन से ग्रस्त बनाता है और फिर ऊर्ध्वारोहण करने के बदले अधःपतन = अधोगति गमन करता है। .. जैसे अग्नि का स्वभाव उष्ण और पानी का स्वभाव शीतल है, परन्तु अग्नि के स्पर्श से पानी के उष्ण हो जाने से यदि कोई पानी का स्वभाव उष्ण मान ले तो यह उसकी भ्रान्ति है। इसी प्रकार ब्रह्मचर्य आत्मा का स्वभाव है, किन्तु मोहादि विविध विकारों से लिप्त होने से अब्रह्मचर्य को आत्मा का स्वभाव या गुण मान ले तो यह उसका भ्रम है। आत्मा का स्वभाव विकाररहित है, विकार आत्मा का विभाव है, विकारों से आत्मा कर्मोपाधिक हो जाती है। जीव अब्रह्मचर्य पापस्थान में तभी जाता है, जब वह विभावों को स्व-भाव मानकर उन्हें अपनाता है। अर्थात् आत्मा जब स्व-स्वभाव से हटकर परभावों-विभावों में रमण करता है, तभी अब्रह्मचर्य नामक पापस्थान उसके जीवन में प्रविष्ट हो जाता है। उक्त पापकर्म के बन्ध के फलस्वरूप व्यक्ति भगवत्कथनानुसार अधोगतिगमन करता है। निर्ग्रन्थ मुनिवर अब्रह्मचर्य का त्याग क्यों करते हैं ?
निर्ग्रन्थ मुनिवर अब्रह्मचर्य का त्याग क्यों करते हैं? इसके उत्तर में 'दशवैकालिकसूत्र' में कहा गया है-चूँकि यह अब्रह्मचर्य, जो मैथुन-संसर्गरूप है,
१. (क) स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मो भयावहः।
-भगवद्गीता (ख) एगे आया।
-स्थानांगसूत्र १/१/१ २. 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण, पृ. ८२८-८२९