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________________ ॐ ४५८ * कर्मविज्ञान : भाग ६ * अपने अधिकार में लेने की योजना बनाता है। यह दृष्टि का ही दोष है कि वह आत्मा की ओर दृष्टि न करके दूसरों की मालिकी की वस्तु पर दृष्टिपात करता है, उसे हड़पने, अपने कब्जे में लेने या अपहरण करने का प्रयास करता है, यही अदत्त-आदान है। वैसे देखा जाए तो ‘प्रश्नव्याकरणसूत्र' में अदत्तादान (चौर्यकर्म) के तीस नामों का उल्लेख किया गया है। चोरी का कार्य अपकीर्तिवर्द्धक अनार्यकर्म है, वह प्रियजनों को तथा अपने परिवार और समाज को कलंकित करने वाला और भेद डालने वाला है। मालिक की उपस्थिति या अनुपस्थिति में या उसकी असावधानी में गिरोह बनाकर या अकेले ही बना दिये जबरन किसी की. वस्तु हथिया लेना अदत्तादान नामक पापस्थान है। आजकल सफेदपोश और सभ्य दिखने वाले व्यक्ति भी छल से, बल से, ठगी से, झूठे दस्तावेज लिखाकर, अंक बढ़ाकर, रिश्वत आदि लेकर सभ्य तरीकों से चौर्यकर्म करते हैं। ये सब एक या दूसरे प्रकार से आत्मा के प्रति द्रोह, वंचना या गैर-वफादारी सिद्ध करते हैं।' अदत्तादान के मुख्य आठ प्रकार अदत्तादान के मुख्यतया आठ प्रकार हैं-(१) देव-अदत्त, (२) गुरु-अदत्त, (३) शासनकर्ता-अदत्त, (४) गृहपति-अदत्त, (५) साधर्मि-अदत्त, (६) स्वामिअदत्त, (७) जीव-अदत्त, और (८) तीर्थंकर-अदत्त।२ ' स्वामि-अदत्त आदि का भावार्थ-तात्पर्यार्थ स्वामि-अदत्त से मतलब है, जिस वस्तु का जो स्वामी हो, मालिक हो, उसकी अनुमति या सहमति के बिना उस वस्तु का ले लेना या परिवार में यदि किसी वस्तु के लिये निषेध कर देने पर उस वस्तु को ले लेना अदत्तादान कहलाता है। साधर्मि-अदत्त से मतलब है वेष से, आचार से, विचार से तथा धर्म-सम्प्रदाय से जो एक ही धर्मसंघ का साधु, साध्वी या श्रावक-श्राविका है, उसके द्वारा निषिद्ध वस्तु का उसकी अनुमति-सहमति के बिना लेना, अपने कब्जे में ले लेना साधर्मि-अदत्त है। जीव-अदत्त का मतलब है-किसी जीव की इच्छा उसके दस प्राणों में से किसी प्राण का हरण कर लेने-देने की नहीं होती, परन्तु क्रूर लोग उस पशु-पक्षी आदि के प्राण हरण कर लेते हैं, जैसे-कस्तूरी के लिए कस्तुरीमृग की, हाथीदाँत के लिए हाथी की, रेशम के लिए शहतूत के कीड़ों की, चमड़े आदि के लिए विविध पंचेन्द्रिय पशुओं का वध उन-उन पशुओं की अनुमति-सहमति के बिना जबरन जाता है, उसके अंग काटे जाते हैं, ऐसा करना जीव-अदत्त है। तीर्थंकर-अदत्त का भावार्थ है-तीर्थंकर की आज्ञा का उल्लंघन करना, आज्ञा बाह्य प्रवृत्ति करके १. 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' (आचार्य देवेन्द्र मुनि) से भाव ग्रहण २. 'श्रमण-प्रतिक्रमण' से भाव ग्रहण
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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