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________________ ॐ अविरति से पतन, विरति से उत्थान-१ ॐ ४५७ ॐ आशंका, पकड़े जाने का तथा भयंकर सजा पाने के भय से ग्रस्त रहता है, उसे न तो सद्बोध पाने की कोई रुचि होती है और न ही सदाचार के मार्ग पर चलने की इच्छा होती है। ‘प्रश्नव्याकरणसूत्र' में बताया गया है-चौर्यकर्म करने वाले का जीव हरदम मुट्ठी में रहता है। उसे सुख से खाने, पीने, सुख से सोने और रहने तक को भी प्रायः अवकाश नहीं रहता। उसे रात-दिन छिपकर रहने, चौकन्ने रहने, लड़ने-भिड़ने, दूसरे की हत्या करने तथा घायल करने, मर्मान्तक प्रहार करने आदि का अभ्यास करना पड़ता है। चोरी वही करता है, जिसकी आत्मा के प्रति वफादारी नहीं है __ चोरी. चाहे छोटी हो या बडी. वही करता है, जिसे अपनी आत्मा के प्रति कोई वफादारी नहीं है, जो अपनी आत्मा की ओर कभी दृष्टिपात, चिन्तन-मनन, आत्म-हित का विचार नहीं करता; जिसे अपने परिवार, समाज और राष्ट्र के गौरव तथा कर्तव्य और दायित्व का भान नहीं होता अथवा विचार या अनुप्रेक्षण तक नहीं होता। चौर्यकर्म करने वाला समाज और राष्ट्र के हित, आत्म-हित एवं पारिवारिक हित के प्रति आँखें मूंद लेता है और एकमात्र धन, सुखोपभोग के साधन, बहूमूल्य वस्तु या सुन्दर नारी अथवा किसी के राज्य पर दृष्टि गड़ाये रहता है और मौका पाकर, योजनाबद्ध तरीके से, उक्त मनोज्ञ वस्तु को हथियाने और उसके स्वामी की नजर बचाकर या संघर्ष करके हथियाने का प्रयत्न करता है। चोरी करने वाला अशान्ति फैलाता है इस प्रकार वह किसी भी प्रकार की चोरी करके अपनी आत्मा को तो अशान्ति, दुर्गति और विपत्ति में डालने का प्रयत्न करता ही है, समाज और राष्ट्र में भी अशान्ति एवं अराजकता फैलाता है। जिसे अपनी आत्मा के प्रति तथा परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति वफादारी, जिम्मेदारी और कर्तव्य का भान होगा, वह कदापि किसी प्रकार का चौर्यकर्म नहीं करेगा, उसे भूख के मारे छटपटाते हुए प्राण त्यागना स्वीकार होगा, किन्तु चोरी करना मान्य नहीं होगा।२ . सभ्यतापूर्ण चोरियाँ भी होती हैं मानव ज्यों-ज्यों सभ्यता की ओर बढ़ रहा है, त्यों-त्यों विज्ञान ने एक से एक नयी चमत्कारिक एवं भोगोपभोग की, सुख-सुविधाओं की सामग्री प्रस्तुत की है और त्यों-त्यों ही मनुष्य की दृष्टि रागभाववश उन जीवों को येन-केन-प्रकारेण १.. (क) 'श्रावक का अस्तेय व्रत' (आचार्य श्री जवाहरलाल जी म.) से भावांश ग्रहण (ख) देखें-प्रश्नव्याकरणसूत्र का तृतीय आम्रवद्वार २. 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' (आचार्य देवेन्द्र मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. २८६
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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