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________________ * ४५६ * कर्मविज्ञान : भाग ६ * असत्य-सेवन का दुष्परिणाम : नरकगमन _ 'अज' शब्द का अर्थ-'नहीं उगने वाला धान्य' होता है, परन्तु नारद द्वारा इस प्रकार सच्चा अर्थ बताने पर पर्वत गुरु द्वारा 'अज' का अर्थ बकरा बताया और अपनी झूठी बात को सत्य सिद्ध करने के सहपाठी वसु राजा को साक्षी बनाया। वसु राजा ने भी जब अज का अर्थ बकरा होता है, इस प्रकार की झूठी साक्षी दी तो उसे इस सांस्कृतिक असत्य-प्रतिपादन के फलस्वरूप घोर नरक का मेहमान बनना पड़ा। . असत्य-सेवन से विरत होने का सुफल __श्रीकान्त चोर था, किन्तु सत्य बोलने की प्रतिज्ञा लेने के कारण श्रेणिक राजा और अभयकुमार द्वारा पूछे जाने पर सच्ची-सच्ची बात बता देने से उसकी सजा माफ हो गई। इस प्रकार असत्य-सेवन नामक पापकर्म से अधोगति और असत्यसेवन से विरत होने से भयंकर सजा से बचाव और उच्च पद-प्राप्ति का लाभ होता है। तृतीय पापस्थान : अदत्तादान क्या है ? चौर्यकर्म अर्थात् अदत्तादान नामक पापस्थान भी सजीव-निर्जीव पर-वस्तुओं को देखने से होता है अर्थात् मन में उन वस्तुओं पर रागभावपूर्वक पाने का चिन्तन करने, लोभवश उस वस्तु की प्रशंसा करके दूसरों को ठगकर, धोखा देकर, वंचना करके, उक्त पर-वस्तु को लेने का उपक्रम करना और काया से अपने अधिकार से बाहर की वस्तु को अपने कब्जे में करना, अपहरण करना, छीनना, लूटना, चुराना, डकैती, जेबकटी करना आदि कायचेष्टाएँ उन-उन वस्तुओं या उन वस्तुओं के स्वामी या अधिकारी को देखने से ही होती हैं। चौर्यकर्म के भयंकर परिणाम __ चोरी एक भंयकर पापकर्म है, जिसकी सजा इहलोक में भी मृत्युदण्ड तक मिलती है और परलोक में तो इसकी सजा के रूप में यातनाओं का स्थान नरक, तिर्यञ्चगति अथवा दरिद्रतायुक्त दुःखदायक मनुष्यगति प्राप्त होती है, जहाँ उसे न तो कोई सदबोध प्राप्त होता है और न ही सदाचार का मार्ग मिलता है, क्योंकि चौर्यकर्म के फंदे में फँसकर मनुष्य रात-दिन आर्त्त-रौद्रध्यान, चिन्ता, तनाव, १. (क) असद्भिधानमनृतम्। -तत्त्वार्थसूत्र, अ. ७, सू. ९ (ख) अनन्तसंसारिओ होइ (उस्सुत्तपरूवओ)। (ग) देखें-प्रश्नव्याकरणसूत्र, द्वितीय आस्रवद्वार में असत्य के विभिन्न प्रकार तथा उदाहरण (घ) पाप नहीं कोई उत्सूत्र-भाषण जिस्यो। -आनन्दघन चौबीसी २. 'श्रावक का सत्यव्रत' (आचार्य जवाहरलाल जी) से सार संक्षेप
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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