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________________ ४५४ कर्मविज्ञान : भाग ६ से उन्होंने जैनधर्म अंगीकार कर लिया, भगवान महावीर के अनन्य भक्त और क्षायिक सम्यक्त्व बने । ' यदि पर-भाव में दृष्टि होने से पापकर्म हो जाने के बाद तुरंत या बाद में भी शीघ्र जागृति आ जाए, पश्चात्ताप की धारा बहने लगे तथा उस पापकर्म की प्रशंसा और अनुमोदना न की जाए तो उक्त पापकर्म से प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की तरह शीघ्र ही छुटकारा होकर उस स्थितात्मा की चेतना का ऊर्ध्वारोहण हो जाता है। वह मुक्त होकर लोकाग्र में स्थित हो जाता है । २ दूसरा मृषावाद नामक पापस्थान : क्या और कैसे-कैसे ? दूसरा मृषावाद नामक पापस्थान है, इसका दूसरा नाम असत्य या झूठ है। मृषावाद भी दूसरे (पर-भाव ) की ओर दृष्टि होने से होता है। किसी व्यक्ति को धोखा देने, ठगने, वंचना करने, मन में छलकपट करने या चोरी- लूटपाट करने का प्लान बनाने, वस्तु में मिलावट करने, झूठा लेख या दस्तावेज बनाने, झूठी साक्षी देने, आगमवचनों के मनःकल्पित झूठा अर्थ करने, अनेकान्त (सापेक्ष) दृष्टि से न बोलने, दूसरों का शास्त्र का झूठा अर्थ बताने या सिखाने के लिए मनुष्य मन से असत्य सोचता है, वचन से असत्य बोलता है और काया से असत्यं आचरण करता है। कर्कश, कठोर, हास्यकारी, निश्चयकारी, छेदन-भेदनकारी, सावद्य (पापवर्द्धक या पापोत्तेजक) भाषा असत्य में गिनी गई है । अतः ऐसी सभी सावद्य भाषाओं का त्याग करना चाहिए, ताकि पापकर्मबन्ध न हो, जीव इसके कारण नरक में न जाए। मरीचि के भव में भगवान महावीर के जीव के पास कपिल नामक एक युवक आया। उसने उनसे धर्ममार्ग पूछा तो ऋषभदेव के पास जाने का उसे कहा। उसने पूछा – “क्या आपके पास धर्म नहीं है ?" मरीचि ने शिष्य लोभवश कह डाला–“कविला ! इत्थंपि इहमपि ।" अर्थात् कपिल ! धर्म वहाँ भी है, यहाँ भी है, ऐसा भी है और वैसा भी । इस प्रकार सत्य-असत्य मिश्रित (मिश्र) भाषा (अर्द्धसत्य) बोलने के कारण उस असत्य से पापकर्म (नीच गोत्र ) का बन्ध कर लिया । उसका फल उन्हें कई जन्मों तक भोगना पड़ा । ३ इसलिए असत्या और सत्यानृता ये दोनों प्रकार की भाषाएँ पापवर्द्धक होने से त्याज्य हैं। १. (क) देखें - ठाणांग वृत्ति में श्रेणिक वृत्तान्त (ख) आवश्यक कथा में भी श्रेणिक का जीवनवृत्त अंकित है। २. देखें - प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की कथा आवश्यक कथा में ३. (क) देखें - मरीचि की कथा, आवश्यकसूत्र, मलयगिरि टीका में (ख) 'पाप की सजा भारी' से सार संक्षेप
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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