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________________ * अविरति से पतन, विरति से उत्थान-१ ॐ ४५३ ॐ शिकार, आगजनी, बम-विस्फोट करना, कत्लखाना चलाना, माँस, मछली और अंडों का सेवन, सौन्दर्य प्रसाधनों के पीछे हिंसा (रेशमी वस्त्र के लिए शहतूत कीट की हत्या, मोती के लिए हिंसा, हाथीदाँत के लिए हाथियों की हत्या, सीलप्राणी की हत्या, काराकुल जाति के भेड़ों की हत्या, ह्वेल मछली की हत्या, खरगोशों पर क्रूरता, कस्तूरी के लिए मृगहत्या), प्राणिज दवाइयों के लिए क्रूर-हिंसा आदि अनेक प्रकार से जो प्राणि-हिंसा की जाती है, उससे पापकर्मों का बन्ध होता है, इससे छुटकारा तभी हो सकता है, जब अन्तःकरण से प्राणि-हिंसा का त्याग करे। जैसे-कुमारपाली राजा ने हेमचन्द्राचार्य के उपदेश से माँसाहार का सर्वथा त्याग कर दिया था, कुलदेवी कंटकारी के आगे होने वाली बकरों की बलि बंद करवा दी। सुलसकुमार जीवहत्या के व्यवसाय से सर्वथा मुक्त रहा इसी प्रकार पैतृक परम्परागत पशुहत्या (५00 पाड़ों की हत्या) करने वाले कालसौकरिक (कसाई) ने मंगधेश श्रेणिकनृप ने भरसक प्रयत्न के बावजूद पशुहत्या नहीं छोड़ी, जबकि उसके पुत्र सुलस को इस कुल-परम्परागत जीवहत्या करने का बहुत अनुरोध करने पर भी उसने इस हत्या के व्यवसाय से अपने को सर्वथा मुक्त रखा। सुलसकुमार की आत्मा में दृष्टि थी, इसलिए वह इस हिंसक व्यापार से बिलकुल अलग रहा। श्रेणिक राजा को नरक-प्राप्ति क्यों ? मगध नरेश राजा श्रेणिक जन्म से जैन नहीं थे। क्षत्रियकुलोत्पन्न होने से शिकार आदि करने का उन्हें शौक था। एक बार वे शिकार के लिए अंगरक्षकों सहित निकले। जंगल में एक हरिणी को देखते ही उस पर तीर छोड़ा। गर्भवती हरिणी के पेट को बींध दिया। हरिणी और उसका गर्भस्थ शिशु दोनों तड़फतड़फकर मर गए। इस शिकार पर उन्हें बहुत गर्व हुआ, उनके अंगरक्षकों ने भी उनकी प्रशंसा की। राजसभा में मगधेश के इस पराक्रम की गौरवगाथा गाई गई। अपनी स्तुति के शब्दों को सुनकर श्रेणिक के मन में पापकर्म के लिए पश्चात्ताप न होकर प्रशंसा, हिंसा की अनुमोदना आदि से पापकर्म कई गुना बढ़ गया। कर्मबन्ध गाढ़ गाढ़तर निकाचित हो गया। अतः उसके फलस्वरूप श्रेणिक राजा को पहली नरक में तो जाना ही पड़ा। यद्यपि बाद में चेलना रानी तथा अनाथी मुनि के सत्संग १. देखें-कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य चरित्र । २. 'पाप की सजा भारी' से भाव ग्रहण, पृ. १७३-१७४
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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