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________________ ४५२. कर्मविज्ञान : भाग ६ लाशों को नरपिशाच दृढ़प्रहारी द्वारा घूर घूरकर देखते-देखते और अकालजात बछड़े की छटपटाहट देखकर उसका कठोर दिल आज पसीज गया, उसका अन्तर से उठा । उसके हृदय में करुणा जागी । वह सहसा अपनी आत्मा की ओर देखने - सोचने लगा। स्वयं को धिक्कारने लगा कि हाय ! इन पापकर्मों से मैं कैसे छूट पाऊँगा ? यों वैराग्यभाव से आप्लावित होकर वह साधु बन गया । सोचा - इन पापकर्मों से छुटकारा पाने का यही उपाय है कि जिन लोगों को मैंने लूटा है या जिनके सम्बन्धियों का वियोग किया है, उनके सम्पर्क में आऊँ और वे लोग जो भी कष्ट दें, उस पर कोई ध्यान न देकर मैं अपने आत्म-ध्यान में रहूँ, समभाव से उन कष्टों को सहूँ। वह पहले डेढ़ महीने नगर के पूर्व द्वार के पास, फिर क्रमशः पश्चिम, दक्षिण और उत्तर के द्वारों के पास डेढ़-डेढ़ महीने ध्यानस्थ खड़ा रहा। इस प्रकार अनशन, प्रतिसंलीनता, कायक्लेश, प्रायश्चित्त, ध्यान और व्युत्सर्ग तप के सम्मिलित प्रयोग से स्थितात्मा दृढ़प्रहारी मुनि छह महीनों में समस्त शुभ-अशुभ कर्मों का क्षय करके भगवद्वचन के अनुसार सर्वकर्मों के भार से मुक्त होकर ऊर्ध्वारोहण करके वे सिद्ध-बुद्ध होकर लोक के अग्र भाग में स्थित हो गया। बालमुनि अतिमुक्तक केवलज्ञानी हुए ..." नवदीक्षित बालमुनि अतिमुक्तककुमार ने स्थंडिल भूमि के मार्ग में एक जगह पानी की तलैया देखकर सचित्त पानी पर अपनी पात्री रखी, वह तैरने लगी। इस जीवविराधना (हिंसा) दोष से बचने के लिए इर्यापथिकी क्रिया-पाठ किया। इरियावही का पाठ बोलते समय ' पणग- दग' शब्द बोलते-बोलते उन्होंने अपना ध्यान बाहर से हटाकर अन्तरात्मा में डुबकी लगाई। पश्चात्ताप हुआ। इसी आत्मजागृति के साथ हिंसा के पाप की तीव्र आलोचना करते-करते उनकी आत्मा क्षपक श्रेणी पर ऊर्ध्वारोहण कर गई, केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। यह हुआ पर भाव में दृष्टि से हुए जीव-हिंसारूप पापकर्म से आत्म-भाव में दृष्टि से हिंसा - विरति से चेतना का ऊर्ध्वारोहण । २ जीव-हिंसा के इन सब पापों को त्यागने से ही पापकर्म से मुक्ति इसी प्रकार देवी-देवों के नाम पशुबलि, यज्ञों में पशुओं को होमना, कुर्बानी, राज्यलिप्सा, राज्यवृद्धि आदि के लिए युद्ध, भ्रूणहत्या, आतंकवाद, हत्या, दंगा, १. आवश्यकसूत्र टीका में अंकित दृढ़प्रहारी कथा २. (क) देखें - अन्तकृद्दशासूत्र में अतिमुक्तककुमार की जीवनगाथा (ख) 'पाप की सजा भारी' (मुनि श्री अरुणविजय जी ) से सार संक्षेप, पृ. १५९
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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