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________________ ॐ अविरति से पतन, विरति से उत्थान-१ * ४५१ ॐ प्रादुर्भाव होता है और वही भाव-हिंसा है।' द्रव्य-हिंसा प्रमाद के योग से किसी प्राणी के प्राणों का वियोग करना है।२ 'प्रश्नव्याकरणसूत्र' में हिंसा के तीस पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख है।३ हिंसा-पापस्थान से विरति कैसे ? हिंसा तभी होती है, जब व्यक्ति दूसरे की ओर देखता है, हिंसा दो के बिना हो नहीं सकती। भाव-हिंसा, आत्मा के साथ विभाव जुड़ते हैं, तभी होती है। राज्य, धन, जमीन, भोग्यपदार्थ आदि निर्जीव पर-पदार्थों के लिए अथवा किसी स्त्री, शत्रु, शासन, धनाढ्य आदि सजीव पर-पदार्थों को लूटने, अपहरण करने, ठगने, अपने कब्जे में करने आदि के लिये हिंसा होती है, तब भी दृष्टि पहले पर की ओर ही जाती है। उससे पापकर्म का बन्ध हो जाता है। यदि स्व (आत्मा) में, आत्म-भाव में या आत्म-स्वरूप में, आत्म-गुणों में दृष्टि रहे और वह व्यक्ति उनमें टिका रहे तथा पापकर्म के (अशुभानव) के आने की संभावना हो या आ गए हों, तो तुरन्त सावधान होकर उनसे विरत हो जाए, स्व में स्थिर हो जाए तो संवर धर्म उपार्जित कर सकता है। ... हत्यारा दृढ़प्रहारी आत्मध्यानी होकर विरत हुआ . ब्राह्मणपुत्र दृढ़प्रहारी सातों ही दुर्व्यसनों में रत रहता था। पिता ने घर से निकाल दिया तो वह लुटेरा और हत्यारा बन गया। उसने अपनी ओर नहीं देखा, उसकी दृष्टि सदैव दूसरों की ओर ही रहती थी। एक दिन ब्राह्मण के यहाँ वह भोजन के लिए आमंत्रित था। परन्तु वहाँ ब्राह्मणी ने उसकी अशिष्टता देखकर डाँटा तो तलवार के प्रहार से उसके दो टुकड़े कर दिये। ब्राह्मण और उसका पुत्र सहायता के लिए दौड़े तो उनका भी काम तमाम कर दिया। स्वामिभक्त गाय दृढ़प्रहारी को भगाने के लिये दौड़ी तो उस पर भी तलवार चलाकर दो टुकड़े कर दिये। गाय गर्भवती थी। उसका तड़फड़ाता गर्भ भी बाहर निकल आया। इस प्रकार ५ प्राणियों की हत्या करके उसने घोर पापकर्म का बन्ध कर लिया। उन सब की 5. (क) तेसिं (रागादीणं) चं उप्पत्ती हिंसेति जिणेहिं णिदिट्ठा। -कषाय-पाहुड १/११/४२/१०२ (ख) अशुद्धोपयोगो हि छेदः। स एव च हिंसा। -प्रवचनसार (त. प्र.) २१६-२१७ • (ग) रागाद्युत्पत्तिस्सु निश्चयो हिंसा। -परमात्म-प्रकाश टीका २/१२५ (घ) अर्थाद्रागादयो हिंसा स चास्त्यधर्मो व्रतच्युतिः। -पंचाध्यायी (उ.) ७५५ (ङ) नि ध्यवसाय एव हिंसा। -समयसार (आत्मख्याति टीका), गा. २६२ २. प्रमत्तयागात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा। -तत्त्वार्थसूत्र, अ. ७, सू. १३ ३. देखें- नव्याकरणसूत्र के प्रथम आम्रवदार में हिंसा के तीस नाम
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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