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________________ ॐ विरति-संवर: क्यों, क्या और कैसे ? * ४४७ * जो प्रत्याख्यान नहीं करते, वे सभी पापकर्मभागी इसी सिद्धान्त का विश्लेषण करके उन्होंने कहा-इस संसार में आत्माएँ हैं, जिनके पापों का प्रत्याख्यान नहीं होता, जो त्याग-क्रिया में कुशल नहीं होती। जो एकान्त सुप्त होती हैं, जिनके मन-वचन-काया में जरा भी विचारशीलता (मनस्कता) नहीं होती तथा जो पापों का हनन (नाश) और प्रत्याख्यान नहीं करतीं, प्रतिज्ञाबद्ध होकर पापों से विरत, संवृत नहीं होती, ऐसी आत्मा वाले जीव असंयत, अविरत और असंवृत होते हैं। वे मन-वचन-काया से पापयुक्त न होने पर भी, हिंसा में प्रवृत्त न होने पर भी, अमनस्क होने पर भी, पाप करने वाले मन से रहित होने पर भी, मन-वचन-काय से पाप करने के विचार से मुक्त होने पर भी, यहाँ तक कि स्वप्न में भी पापकर्म न करने पर भी ऐसी अविचारशील, एकान्त सुप्त आत्मा वाला पुरुष सक्रिय (साम्परायिक क्रियायुक्त) होता है-पापकर्म का भागी होता है। असंयत अविरत आत्मा अठारह पापों का कारण क्यों ? इसका कारण इस प्रकार है-जो आत्मा षड्जीवनिकाय (छह प्रकार के जीवों = पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक के जीवों) के प्रति पापकर्मों को हत नहीं करता-उनका प्रत्याख्यान नहीं करता, निश्चय ही वह आत्मा कर्मबन्ध के हेतुभूत षड्जीवनिकाय के प्रति प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन तक के पापों को करने वाली है। __ जैसे एक वधक है। उसकी चित्त-स्थिति ऐसी है कि मौका पाकर गाथापति या गाथापतिपुत्र के या राजा अथवा राजपुरुष के घर में प्रवेश करूँगा और मौका पाकर उसका वध करूँगा। इस प्रकार मौके की ताक में रहने वाला पुरुष रात-दिन, सोते या जागते गाथापति आदि का अमित्र है या नहीं? वह मिथ्यासंस्थित, निरन्तर शठ और व्यतिपात चित्त वाला पुरुष उनके प्रति पापी है या नहीं? इसी तरह पापों. का प्रत्याख्यान न करने वाला बाल जीव सर्व प्राण, सर्व भूत, सर्व जीव और सर्व सत्त्वों के प्रति दिन-रात, सोते-जागते अमित्र होता है तथा प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक के पाप को करने वाला होता है। .. १. (क) एवं खलु भगवया अक्खाए-असंजए अविरए, अपडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मे - सकिरिए, असंवुडे एगंतदंडे एगंतवाले एगंतसुत्ते। से वाले अवियार-मण-वयण-काय-वक्के सुविणमवि ण पासइ, पावे य कम्मे कज्जइ। -सूत्रकृतांग २/४/२० (ख) वही २/४/१-२0 .
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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