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________________ * ४४८ * कर्मविज्ञान : भाग ६ * यह सिद्धान्त सभी असंयत-अविरत प्राणियों के लिए है । ___ यह सिद्धान्त केवल मनुष्यों के प्रति ही लागू नहीं है, अपितु षड्जीवनिकाय में जो असंज्ञी (अमनस्क) जीव हैं, उनके प्रति भी; जिनमें न तर्क है, न संज्ञा है, न मन करने की शक्ति है, न ही उनके वाणी है। जो न तो स्वयं पाप करते हैं, न ही दूसरे से पाप कराते हैं और न पाप करते हुए को अच्छा समझते हैं। उनके (द्रव्य) मन नहीं है। ऐसे अज्ञानी प्राणी (एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के ऐसे जीव) भी अविरति (पापकर्मों से विरत होने का प्रत्याख्यान व्रत ग्रहण न करने के कारण अप्रत्याख्यान) के कारण सबके अमित्र हैं तथा प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःख, शोक, ताप, पीड़ा, परिताप, वध, बन्धन, परिद्वेष देने से (संकल्पपूर्वक) विरत न होने के कारण अठारह ही पापों के दोष के भागी हैं। अप्रत्याख्यानी जीव पाप में प्रवृत्त न हों, तो भी पाप के भागी भगवान महावीर का उपर्युक्त कथनानुसार ऐसा असंयत, अविरत (विरतिरहित), अप्रत्याख्यात पापकर्मा और असंवृत मनुष्य कोई भी संज्ञी या असंज्ञी (समनस्क या अमनस्क) प्राणी (भले ही) मन, वचन, काय से पाप करने का विचार रखता हो तथा स्वप्न में भी पाप न करता हो (किन्तु हिंसादि का प्रत्याख्यान लेकर व्रतबद्ध न होने के कारण); तो भी पापकर्मबन्ध का भागी होता है।' असंयत व्यक्ति के पाँचों इन्द्रिय-विषय जाग्रत, जीव-अजीव कायिक त्रिकरण त्रियोगसम्बन्धी असमय चालू _ 'स्थानांगसूत्र' में कहा गया है-असंयत मानव चाहे सोये हों, चाहे जागते हों, उनके पाँचों इन्द्रिय-विषय-शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श जाग्रत ही रहते हैं। अर्थात् एकान्त असंयती-अवृती-अविरत पुरुष के इन पाँचों के निमित्त से कर्मबन्धन होता ही रहता है। तथैव अविरत पुरुष के पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय सम्बन्धी असंयम (विराधना) होता है; अजीवकाय सम्बन्धी असंयम होता है, पाँचों इन्द्रियों से सम्बन्धित असंयम होता है। मन, वचन और काया का असंयम होता है, करने-कराने-अनुमोदन करने का असंयम भी होता है। १. (क) सूत्रकृतांग २/४/१-१२ (ख) वही २/४/२० २. (क) असंजय-मणुस्साणं सुत्ताणं वा जागराणं वा पंच जागरा पण्णत्ता, तं.-सद्दा जाव फासा। -स्थानांग, स्था. ५, उ. २, सू. १२९ (ख) सत्तविधे असंजमे पण्णत्ता, तं.-पुढविकाइय-असंजमे जाव तसकाइय-असंजमे, अजीवकाइय-असंजमे। ___ -वही, स्था. ७, सू. ८३
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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