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* ४४६ 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ ®
___ जो मनुष्य अपने जीवन को प्रतिज्ञामय (व्रतबद्ध) नहीं करता, वह कभी स्थिर . नहीं हो सकता। ऐसा अहंकार करते हुए मनुष्य देखे जाते हैं, जो कहते हैं-मुझे व्रत की आवश्यकता नहीं। अमुक बात मैं अनायास ही करता हूँ, फिर कभी न हो । तो क्या हर्ज है? जब करना चाहिए, तब तो कर ही लेता हूँ। शराब छोड़ने की प्रतिज्ञा की मुझे क्या जरूरत है ? ऐसा कहने-करने वाला अपनी कुटेब की गुलामी से कभी छूट ही नहीं सकता। व्रतविहीन जीवन निरंकुश एवं ध्येय से डिगाने वाला
वास्तव में, व्रतविहीन जीवन बिना लगाम के घोड़े के समान है अथवा बिना अंकुश के हाथी या बिना डोर के पतंग के समान है। नियंत्रण के अभाव में मनुष्य को मानवीय दुर्बलताएँ अपने ध्येय से गिरा देती हैं, मनुष्य अपने उद्देश्य से भटक. जाता है। अन्यतीर्थिकों की पापकर्म के सम्बन्ध में मान्यता
भगवान महावीर के युग में अन्यतीर्थकों का मत सिर्फ इतना-सा था कि "मन पापयुक्त होने पर मनःप्रत्ययिक, वचन पापयुक्त होने पर वचन-प्रत्ययिक और काया पापयुक्त होने पर काय-प्रत्ययिक पाप होता है। यदि किसी का मन, वचन, तन, पापयुक्त न हो, किसी के हनन में कोई प्रवृत्त न हो, मन-वचन-काय हिंसा करने के विचार से रहित हो तथा कोई स्वप्न में भी पाप न करता हो तो उसे पापकर्म नहीं लगता।"२ भगवान महावीर की पापकर्म सम्बन्धी स्पष्ट मान्यता ।
परन्तु भगवान महावीर ने इससे भिन्न सिद्धान्त की प्ररूपणा की हैमन-वचन-काया से दुष्प्रवृत्ति करने वाला तो पाप का भागी है ही, किन्तु वह भी पाप का भागी है, जिसने हिंसादि पापों का प्रतिज्ञापूर्वक प्रत्याख्यान नहीं किया है, अर्थात् जो हिंसादि पापों से विरत नहीं हुआ है, हिंसादि पापों का निरोध करके संव्रत नहीं हुआ है। अर्थात् भगवान महावीर के अनुसार-दोनों प्रकार के व्यक्ति पापकर्म का बन्ध करते हैं-एक वे जिनके मन-वचन-काय दुष्प्रयुक्त हैं; दूसरे वे, जो अविरत, असंयत और अप्रत्याख्याती पापकर्मा हैं। १. (क) 'जैनभारती' 9 जुलाई, १९८९ के अंक से भावांश ग्रहण, पृ. ४४१ (ख) 'धर्ममंथन' (गुजराती) के पृ. १२६, १२५, १३३, १३२, १३३, १२९, १२६ से
उद्धृत और अनूदित २. सूत्रकृतांगसूत्र, श्रु. २, अ. ४, उ. २ ३. (क) वही, श्रु. २, अ. २, सू. २०-३२, ५८-५९ (ख) तं च पुण करेंति केई पावा असंजया, अविरया, अणिहय-परिमाणा-दुप्पओगी।
-प्रश्नव्याकरणसूत्र, द्वार १/४