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________________ ॐ विरति-संवर : क्यों, क्या और कैसे? * ४४३ ॐ (८) भक्त प्रत्याख्यान (यावज्जीव संलेखना-संथारा), और (९) सद्भाव प्रत्याख्यान (प्रवृत्तिमात्र का परित्याग)। व्रतबद्धता से जीवन मूल्यों में परिवर्तन विरति के सन्दर्भ में व्रताचरण से लाभ के विषय में सोचें तो सर्वप्रथम यह स्पष्ट होगा कि व्रतबद्धता से या नियमबद्धता से, प्रत्याख्यान से भोगों की आकांक्षाएँ अत्यन्त कम हो जायेंगी। भोग और त्याग का, आवश्यकताअनावश्यकता का विवेक उत्पन्न होगा, जिससे जीवन में सन्तुलन पैदा होगा। मर्यादाओं का भी विवेक प्राप्त होगा, जिससे परिवार, समाज आदि में सहयोग, सहिष्णुता और शान्ति बढ़ेगी। व्रतचेतना जाग्रत होने से पर-भावों का आकर्षण कम होगा। अपने आप को सूक्ष्मता से देखने-जानने का अवसर प्राप्त होगा। ज्ञाता-द्रष्टा बनने से प्रत्येक प्रवृत्ति के प्रति राग, द्वेष, कषाय, मोह आदि की मन्दता होगी, कर्मों का उपशमन, क्षय, क्षयोपशम होगा। व्रताचरण से दूसरों के प्रति मैत्री, करुणा, प्रेमाद और माध्यस्थ्यभाव और मनुष्य के भीतर सोई हुई मानवता जागेगी। व्रत ग्रहण करने के बाद मनुष्य अपनी अनियंत्रित इच्छाओं, आकांक्षाओं को कम करके, आवश्यकता और प्रियता (आसक्तिवशता) का विवेक कर सकेगा। व्रत ग्रहण से वह परिवार, समाज और राष्ट्र में विश्वस्त हो जाता है। जैसे साधारण लोहा १३ रु. किलो बिकता है, किन्तु जब उसी लोहे से घड़ी के छोटे-छोटे पुर्जे बनते हैं तो उस लोहे की कीमत हजारों गुना बढ़ जाती है, उसी तरह साधारण मानव की जीवनचर्या है-खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना, धन कमाना, कामसुख भोगना, सुख में फूलना, दुःख में घबराना आदि, और अन्त में सब कुछ छोड़कर मर जाना। उसके जीवन का कोई मूल्य नहीं है, किन्तु जब विरति-संवर के सन्दर्भ में अपने जीवन को वह व्रत, नियम, त्याग, तप, प्रत्याख्यान से आबद्ध करता है, तब उसकी आध्यात्मिक, मानसिक, बौद्धिक शक्ति और समता की क्षमता बढ़ जाती है, उस आत्मा का जीवन बहुमूल्य, विश्ववन्द्य और विश्वपूज्य तक बन जाता है। वह सर्वसाधारण से सर्वमान्य तथा आत्मा से महात्मा और महात्मा से परमात्मा तक बन सकता है। आशय यह है कि जब व्रत की चेतना जाग्रत होती है तो व्यक्ति में संयम, तप, सहिष्णुता, समता आदि की चेतना समुद्भूत होती है। उसके जीवनमूल्य बदल जाते हैं। धार्मिक दृष्टि से जीवन का निर्माण हो जाता है। फिर सादासीधा कठोर जीवन जीने में भी उसे कोई ग्लानि नहीं होती। वे ही चीजें जिनके प्रति उसे आकर्षण था, आसक्ति थी, लालसा थी, वे अब उसके लिए अनाकर्षणीय १. देखें-उत्तराध्ययनसूत्र के २९वें अध्ययन के ३३वें से ४१वें बोल तक की व्याख्या। उत्तरा. (आ. आत्माराम जी म.), भा. ३, पृ. १३०-१४०
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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