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ॐ ४४४.कर्मविज्ञान : भाग ६ ®
और अनासक्तिवर्द्धक बन जाती हैं। उसे प्रत्येक प्रतिकूल, विकट और भयावह परिस्थिति में भी समभावपूर्वक रहने का अभ्यास हो जाता है। स्वस्थ और शान्त जीवन जीने की कला व्रताचरण से आ जाती है। गृहस्थवर्ग और साधुवर्ग के लिए व्रत-साधना का विधान ___ इसीलिए परम उपकारी वीतराग तीर्थंकरों ने कर्ममुक्ति के इच्छुक लोगों से कहा-अपने आप (अपनी इच्छाओं) पर दमन (नियंत्रण) करो। यह दमन (आस्रवों, भोगोपभोगों तथा पाप प्रवृत्ति पर नियंत्रण) है तो दुर्दम्य; किन्तु यही इस लोक और . पर-लोक में सुखी बनाने वाला है। अगर तुम स्वेच्छा से संयम और तप से नियंत्रण (दमन) नहीं करोगे तो दूसरों के द्वारा अथवा अपने दुष्कर्मों द्वारा वध, बन्धन, रोग, संकट, पीड़ा, चिन्ता आदि से तुम्हारा बरबस नियंत्रण (दमन) किया । जाएगा। इसीलिए भगवान महावीर ने आध्यात्मिक दृष्टि से इहलौकिक और पारलौकिक जीवन को सुख-शान्ति, सन्तुष्टि और समता से सम्पन्न बनाने, निरर्थक हिंसादि से विरति के लिए तथा पापकर्मों से आस्रव और बन्ध से बचने के लिए एवं जीवन में भौतिकता और आध्यात्मिकता के सन्तुलन के लिए तथा संवर और निर्जरा के लिए विरति-संवर की साधना बतलाई। गृहस्थ साधकों के जीवन में संवर और निर्जरा की साधना हेतु पाँच अणुव्रतों तथा धनादि की महत्त्वाकांक्षाओं को सीमित करने, उपभोग्य एवं परिभोग्य वस्तुओं की मर्यादा के लिए एवं निरर्थक हिंसा आदि पापों से विरत होने के लिए क्रमशः छठा, सातवाँ, आठवाँ गुणव्रत बताए। आध्यात्मिक जीवन के विकास के लिए ४ शिक्षाव्रतों का विधान किया। साधुवर्ग के लिए उन्होंने पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, दशविध श्रमणधर्म, द्वादशविध अनुप्रेक्षा, परीषह-उपसर्ग-सहन, पंचविध आचार, सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय की तथा द्वादशविध तप की साधना का विधान किया। कितनी अपार अनुकम्पा और दया थी उनकी संसारी जीवों पर?२
१. अप्पा चेव दमेयव्यो, अप्पा हु खलु दुद्दमो।
अप्पा दंतो सुही होई अस्सिं लोए परत्थ य॥१५॥ वरं मे अप्पा दंतो संजमेण तवेण य।
माऽहं परेहिं दम्मंतो बंधणेहिं वहेहिं य।।१६॥ -उत्तरा., अ. १, गा. १५-१६ २. (क) देखें-उपासकदशांगसूत्र में आनन्दश्रमणोपासक द्वारा व्रत-ग्रहण का पाठ (ख) अगार धम्म दुवालसविहं आइखइ, तं.-पंचाणुव्वयाइं तिण्णि गुणव्वयाई, चत्तारि सिक्खावयाइं।
___ -उववाइसूत्र ७७ (ग) हिंसाऽनृत-चौर्येभ्यो मैथुनसेवा-परिग्रहाभ्यां च।
पापपुणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम्।।४९।। सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वेषामविरतानाम्। अनगाराणां, विकलं सागाराणं ससंगानाम्॥५०॥ -रत्नकरण्डक श्रावकाचार ४९-५०