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________________ * ४३६ 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ माँसाहार और व्यभिचार बार-बार करने का चस्का लग गया। अतः अब उसे सुख-सुविधामय विचित्रनगर में प्रवेश करने की उतावल के बदले इन्हीं-इन्हीं पापकों को बार-बार करने की लगन लगी। इसलिए दरबानों को चकमा देने के. लिए वेश बदल-बदलकर प्रत्येक द्वार में घूमता रहा। आखिर एक दरबान ने उसको और उसकी ठगबाजी को पहचान लिया। उसने उस बाबा को पकड़कर अंदर धकेल दिया। नगर के अंदर बाबा ने विचित्र दृश्य देखा-वहाँ की स्थिति नरकागार की-सी थी। जगह-जगह मारामारी, छेदन-भेदन, यंत्र-पीड़न तथा चमड़ी छिलना, भालों से बींधना, पीसना, कूटना, लातें मारना, उठाकर ऊपर से नीचे शिला पर गिराना, आग-सी जलती हुई रेत पर भुनना, तपतपाते तवे पर सेकना आदि भयानक परिस्थिति थी। बाबा को भी जब इन भयानक पीड़ाओं से गुजरना पड़ा, तब वह हायतोबा मचाने लगा। अपराधी को दण्ड देने वाले उसकी पुकार को अनसुनी करके कहते-क्यों, तूने मद्यपान किया था न? माँस खाया था न? जुआ खेला था न? और व्यभिचार भी खुलकर किया था न? याद कर उन पापों को, अब सजा भोगते समय क्यों रोता है ? इस पर बाबा उनके चरणों में पड़कर कहता है-“ओ बाप ! आयंदा ऐसा नहीं करूँगा, माफ करो मुझे।'' परन्तु दण्डकर्ता उसकी पुकार को क्यों सुनने लगे? वे लोहे के घन से उसे कूटते हैं। उसका मुँह फाड़कर गर्मागर्म तेल उँडेलते हैं। सच तो यह है कि ऐसे पापों का सेवन करते समय जो उनके परिणामों का विचार नहीं करता, तब तो कहता है-“किसने देखा है, परलोक? परलोक है या नहीं, इसमें भी शक है। ये कामभोग हस्तगत हैं, इन्हें या इनके सुखों को छोड़कर भविष्यकालीन अज्ञात सुख का क्यों विचार करें?" ऐसा सोचकर वह हिंसा, झूठ, माया, पैशुन्य, धूर्तता, माँस-मदिरा सेवन, धन और स्त्रियों में आसक्ति, विषयभोगों का मत्त होकर सेवन आदि पापों को श्रेयस्कर मानता है।' आत्मिक गुणों की रक्षा हेतु विरति पर दृढ़ रहने के परिणाम नगर पर शत्रुओं का हमला भले ही बार-बार न होता हो, संवर-निर्जरा से उपार्जित धर्म की पूँजी पर कुनिमित्तों, कुव्यसनों और कुसंस्कारों का हमला तो १. (क) “दिव्यदर्शन', दि. ४-८-९० के अंक से संक्षिप्त, पृ. ३३०-३३१ (ख) हत्थागया इमे कामा, कालिया जे अणागया। -उत्तराध्ययन, अ. ५, गा.६ (ग) वही, अ. ७, गा. ५-६
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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